डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘नये स्कूल की तालीम…..’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 104 ☆

☆ व्यंग्य –  नये स्कूल की तालीम

दफ्तर में अचानक हंगामा मच गया। दफ्तर का रंगरूट क्लर्क सत्यप्रकाश,ठेकेदार समरथ सिंह को बाँह पकड़कर, करीब करीब घसीटते हुए, साहब के कैबिन में ले गया। आजू बाजू बैठे क्लर्कों के मुँह यह दृश्य देखकर खुले के खुले रह गये। बड़े बाबू का मुँह ऐसा खुला कि बड़ी मुश्किल से बन्द हुआ।
सत्यप्रकाश समरथ सिंह को साहब के सामने धकेलते हुए बोला, ‘सर, ये मुझे रिश्वत दे रहे हैं। अभी पाँच सौ का नोट मेरी फाइल में खोंस दिया। मुझे बेईमान समझते हैं। हमारे माँ-बाप ने हमें भ्रष्टाचार करना नहीं सिखाया।’

समरथ सिंह परेशान था। जिस दफ्तर में उसके प्रवेश करते ही सबके मुँह पर मुस्कान फैल जाती हो और जहाँ कोई उससे ऊँचे स्वर में बात न करता हो, वहाँ ऐसी फजीहत उसके लिए कल्पनातीत थी। वह साहब से बोला, ‘अरे सर, ये फालतू का हल्ला कर रहे हैं। पाँच सौ रुपये की कोई रिश्वत होती है क्या?ये हमारा पुराना दफ्तर है। ये नये आये हैं इसलिए हमने खुशी में सोचा मिठाई खाने के लिए छोटी सी भेंट दे दें। इसमें रिश्वत देने वाली बात कहाँ से आ गयी?’

सत्यप्रकाश बिफर कर ठेकेदार से बोला, ‘क्यों!आप हमें मिठाई क्यों खिलायेंगे? आप हमारे रिश्तेदार लगते हैं क्या?’

साहब उसकी बात सुनकर बगलें झाँकने लगे। फिर उससे बोले, ‘तुम अपनी सीट पर जाओ। मैं इनसे बात करता हूँ।’

पाँच मिनट बाद समरथ सिंह साहब के कैबिन से निकलकर, बिना दाहिने बायें देखे, निकल गया।

थोड़ी देर में साहब के कैबिन की कॉल-बैल बजी। बड़े बाबू का बुलावा हुआ। बड़े बाबू पहुँचे तो साहब के माथे पर बल थे। बोले, ‘यह क्या तमाशा है, बड़े बाबू? पुराने आदमियों के साथ कैसा सलूक हो रहा है?’

बड़े बाबू दुखी स्वर में बोले, ‘मेरी खुद समझ में नहीं आया, सर। लड़का अभी नया है, दफ्तर के ‘वर्क कल्चर’ को अभी समझ नहीं पाया है। टाइम लगेगा।’

साहब बोले, ‘उसे समझाइए। इस तरह बिना बात के तमाशा खड़ा करेगा तो काम करना मुश्किल हो जाएगा।’

बड़े बाबू बोले, ‘सर, मैं तो पहले से ही कह रहा हूँ कि नये आदमी को फाइलें सौंपने से पहले उसे दस पन्द्रह दिन तक सिर्फ दफ्तर के नियम-कायदे समझाना चाहिए। साथ ही देखना चाहिए कि समझाने का कितना असर होता है। जब दफ्तर के सिस्टम को समझ ले तभी फाइलें सौंपना चाहिए। आप परेशान न हों। मैं उसको समझाता हूँ।’

बड़े बाबू उठते उठते फिर बैठ गये। बोले, ‘सर, मेरे दिमाग में यह भी आता है कि जैसे कुछ स्कूलों में भर्ती के समय बच्चे के माँ-बाप का इंटरव्यू लिया जाता है, उसी तरह नयी भर्ती को ज्वाइन कराते समय उसके बाप को बुलाना चाहिए। पता चल जाएगा कि बाप ने बेटे के दिमाग में ऐसा कूड़ा-करकट तो नहीं भर दिया है जिससे दफ्तर में काम करने में दिक्कत हो। बहुत से माँ- बाप लड़के को ऐसी बातें सिखा देते हैं कि वह हर छः महीने में सस्पेंड होता है या ट्रांसफर भोगता है। यह लड़का भी ऐसे ही माँ-बाप का सिखाया लगता है। फिर भी मैं उसे लाइन पर लाने की पूरी कोशिश करूँगा।’

अपनी सीट पर आकर बड़े बाबू ने सत्यप्रकाश को बुलाया, बगल में बैठाकर मुलायम स्वर में बोले, ‘भैया, आज समरथ सिंह पर तुम्हारा गुस्सा देखकर मुझे अच्छा नहीं लगा। ऐसा है कि आदमी को अपनी जिन्दगी में कई स्कूलों में पढ़ना पड़ता है। पहला स्कूल आदमी की फेमिली होती है और दूसरा वह स्कूल या कॉलेज जहाँ वह पढ़ता है। काम की जगह या दफ्तर तीसरा स्कूल होता है जहाँ जिन्दगी बसर करने की तालीम मिलती है। दफ्तर में आकर कई बार फेमिली और स्कूल की पढ़ाई को भुलाना पड़ता है क्योंकि आजकल वह शिक्षा आगे की जिन्दगी में अड़चन पैदा करती है। इसलिए तुमको हमारी सयानों वाली सलाह है कि घर-स्कूल की तालीम को भुलाकर यहाँ के तौर-तरीके सीखो ताकि जिन्दगी सुखी और सुरक्षित रहे।

‘दूसरी बात यह कि ये जो ठेकेदार हैं ये हमारे संकटमोचन हैं। आगे इन पर नाराज होने की गलती मत करना। अभी तो तुम इन पर बमकते हो, जिस दिन बहन या बेटी की शादी करनी होगी उस दिन ये ही काम आएँगे। बड़े बड़े संकटों से निकाल कर ले जाएँगे। इसलिए दुनियादार हो कर चलोगे तो तुम्हारे हाथ-पाँव बचे रहेंगे, वर्ना भारी कष्ट उठाओगे। हमारी बात पर ठंडे दिमाग से विचार करना, बाकी हम सिखाने के लिए हमेशा तैयार बैठे हैं।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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