श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
☆ संजय उवाच # 104 ☆ टेढ़ी खीर ☆
भोर का समय है। लेखन में मग्न हूँ। एकाएक कुछ नगाड़ों के स्वर कानों में गूँजने लगते हैं। विचार करता हूँ कि आज श्री गणेशोत्सव का नौवाँ दिन है। अपवादस्वरूप ही इस दिन विसर्जन होता है। फिर इस वर्ष भी सार्वजनिक गणपति की स्थापना नहीं हुई है। ऐसे में सुबह-सुबह नगाड़ों का स्वर कहाँ से आ रहा है? जिज्ञासा के शमन के लिए बाहर निकलता हूँ और देखता हूँ कि गाजे-बाजे के साथ एक मुनिवर का आगमन हो रहा है। भक्तों की भीड़ मुनिवर के आगे और पीछे पैदल चल रही है। सबसे आगे नगाड़ा बजाने वाले चल रहे हैं। अवलोकन करता हूँ कि हर भक्त बेहद महंगे वस्त्र धारण किये है। पदयात्रा में भव्यता और प्रदर्शन है। इन सबके बीच केवल मुनिवर हैं जो सारे प्रदर्शन से अनजान चिंतन और दर्शन में डूबे हैं। सच्चे निस्पृही, सच्चे अपरिग्रही।
अपरिग्रह भाव मानसपटल पर फ्रीज़ होता है और चिंतन की लहरें उठने लगती हैं। याद आता है एक फक्कड़ साधू महाराज का प्रसंग। महाराज जी के पास ठाकुर जी का अत्यंत सुंदर विग्रह था। वे ठाकुर जी की दैनिक रूप से सेवा करते। स्नान कराते, वस्त्र बदलते, पूजन करते। फिर महाराज जी भिक्षाटन के लिए निकलते। भिक्षा में जो कुछ मिलता, पहले ठाकुर जी को भोग लगाते, पीछे आप ग्रहण करते।
एक रात ठाकुर जी ने स्वप्न में दर्शन दिए और बोले, ” महाराज जी, हर रोज सूखी रोटी खाते-खाते थक गया हूँ। कभी थोड़ा घी भी चुपड़ दिया न करो। माखन और गुड़ की कभी-कभार व्यवस्था कर लिया करो।”
महाराज जी नींद से उठकर बैठ गये। सोचने लगे, मेरा ठाकुर तो लोभी निकला! क्रोध में भरकर ठाकुर जी से बोले, ” तुम्हारा यह चटोरापन नहीं चलेगा। ऐसे तो मेरा अपरिग्रह ही नष्ट हो जायेगा।”
चेले को बुलाकर महाराज जी ने ठाकुर जी उसे सौंपते हुए कहा,” इन्हें ले जाओ और किसी मंदिर में विधिवत स्थापित कर दो। सेठों की बस्ती के किसी मंदिर में बैठाना जहाँ इन्हें रोज जी भर के मिष्ठान, पकवान मिल सकें। मेरे पास तो सूखे टिक्कड़ के सिवा और कुछ मिलने से रहा।”
तात्पर्य है कि अपरिग्रह का इतना कठोर पालन कि ठाकुर जी भी छोड़ दिये। वस्तुत: प्रदर्शन, अनावश्यक संचय की जड़ है। दर्शन में सुविधा से ‘प्र’ उपसर्ग जड़कर चैतन्य समाज जड़ हो चला है। अपने ही हाथों खड़े किये इस एकाक्षरी भस्मासुर से मुक्त हो पाना मनुष्य के लिए टेढ़ी खीर सिद्ध हो रहा है।
अंतिम बात, ‘टेढ़ी खीर’ का अर्थ कठिन होता है लेकिन ‘कठिन’ का अर्थ ‘असंभव’ नहीं होता।…विचार कीजिएगा।
© संजय भारद्वाज
अपराह्न 4:34 बजे, 18 सितम्बर 2021
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
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संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
प्रदर्शन से मुक्ति पाना कठिन है पर असंभव नहीं है। सकारात्मक चिंतन।
गहन संदेश
टेढ़ी खीर पर असंभव कुछ नहीं
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