डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘साहब लोग का टॉयलेट’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – साहब लोग का टॉयलेट ☆
उस दफ्तर में दो टॉयलेट हैं। एक साहब लोगों का है और दूसरा क्लास थ्री और फ़ोर के लिए। साहब लोग भूलकर भी दूसरे टॉयलेट में नहीं जाते, और साहबों को छोड़कर दूसरों को पहले टॉयलेट में जाने की सख़्त मुमानियत है। क्लास थ्री या फ़ोर का कोई रँगरूट अगर भूल से साहब लोग के टॉयलेट में चला जाए तो उसकी ख़ासी लानत- मलामत होती है। ख़ुद बड़े बाबू उसकी क्लास लेते हैं।
कभी एक और दफ्तर में जाना हुआ था। वहाँ टॉयलेट के दरवाज़े पर एक पट्टिका लगी थी जिसका कुछ हिस्सा दरवाज़े के पल्ले से छिपा था। पट्टिका पर लिखा दिखायी पड़ा— ‘शौचालय अधिकारी’। देखकर चमत्कृत हुआ। यह कौन सा पद निर्मित हो गया? थोड़ा आगे बढ़ा तो पूरी पट्टिका दिखी। पूरी इबारत थी—‘शौचालय अधिकारी वर्ग’, यानी अधिकारी वर्ग के लिए आवंटित टॉयलेट था।
पहले जिन टॉयलेट्स की बात की उसके बड़े साहब अपने वर्ग के टॉयलेट में कुछ सुधार चाहते हैं। वे कहीं ऐसे नल देख आये हैं जिनमें हाथ नीचे लाते ही अपने आप पानी गिरने लगता है और हाथ हटाने पर अपने आप बन्द हो जाता है। नल खोलने या बन्द करने की ज़रूरत नहीं होती। बड़े साहब तत्काल अपने टॉयलेट में ऐसे ही नल लगवाना चाहते हैं। लगे हाथ वे पुराने फर्श को तोड़कर चमकदार टाइल्स भी लगवाना चाहते हैं ताकि टॉयलेट साहब लोग के स्टेटस के अनुरूप हो जाए। बड़े साहब की इच्छा को छोटे साहबों ने ड्यूटी के रूप में ग्रहण किया और तत्काल ठेकेदार को काम सौंप दिया गया।
लेकिन समस्या यह आयी कि टॉयलेट मुकम्मल होने तक साहब लोग ‘रिलीफ़’ पाने के लिए किधर जाएँगे। बड़े साहब का आदेश ज़ारी हुआ कि टॉयलेट मुकम्मल होने तक सभी अफ़सरान थ्री और फ़ोर क्लास वाले टॉयलेट में ही राहत पायेंगे। चार छः दिन की तो बात है।
लेकिन यह फ़रमान सुनते ही साहब लोगों के मुख मुरझा गये। थ्री और फ़ोर क्लास वाले टॉयलेट में कैसे जाएँगे?क्या अब साहब लोगों और निचली क्लास के लोगों के बीच कोई फ़र्क़ नहीं रहेगा? ‘रबिंग शोल्डर्स विथ देम!’
एक दो दिन के अनुभव के बाद साहबों के बीच भुनभुन होने लगी।’इन लोगों में एटीकेट नहीं है। टॉयलेट में एक दूसरे से बात करेंगे या एक दूसरे पर हँसेंगे। एक दूसरे का मज़ाक उड़ायेंगे। वो धनीराम तो वहाँ जोर जोर से गाने लगता है। टॉयलेट का भी कुछ एटीकेट होता है। वहाँ हम इनके बगल में खड़े होते हैं तो बहुत ‘एम्बैरैसिंग’ लगता है।’रिलीफ़’ का काम भी ठीक से नहीं हो पाता। उस पर साइकॉलॉजी का असर होता है।’
टॉयलेट का काम शुरू होने के दो दिन बाद दास साहब बड़े साहब के पास जाकर बैठ गये हैं। कहते हैं, ‘सर, मेरी रिक्वेस्ट है कि लंच ब्रेक आधा घंटा बढ़ा दिया जाए।’रिलीव’ होने के लिए सिविल लाइंस तक जाना पड़ता है। यहाँ बहुत ‘अनकंफर्टेबिल’ ‘फ़ील’ होता है।’एडजस्ट’ करने में दिक्कत होती है। अटपटा लगता है। ऑफ़िस में हम साथ साथ बैठ सकते हैं, लेकिन टॉयलेट में आजू- बाजू खड़ा होना बहुत मुश्किल है।’इट इज़ ए डिफ़रेंट फ़ीलिंग ऑलटुगैदर।’ लगता है जैसे हमारी साइज़ कुछ छोटी हो गयी हो।’
बड़े साहब सहानुभूति में सिर हिलाते हैं, कहते हैं, ‘आई कैन अंडरस्टैंड इट। यू कैन टेक मोर टाइम आफ़्टर लंच। आई वोन्ट माइंड इट। तीन चार दिन की बात है।’
दास साहब संतुष्ट होकर उठ जाते हैं। फिर भी दफ्तर में हल्का टेंशन रहता है। ज़्यादातर साहब लोग ‘रिलीव’ होने के लिए बाहर भागते हैं, लेकिन डायबिटीज़ वालों को मजबूरन दफ्तर में ही ‘रिलीव’ होना पड़ता है।
छः दिन में टॉयलेट का सुधार संपन्न हो गया। साहब लोगों ने राहत की साँस ली। बड़े साहब ने सबसे पहले नये ‘गैजेट्स’ का इस्तेमाल किया और फिर बाकी साहब लोगों ने भी उनका आनन्द लिया। छः दिन बाद आखिरकार वो ‘डिस्टर्बिंग फ़ीलिंग’ ख़त्म हो गयी।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
साहेब के अंहकार का कुलबुलाता संसार। शौचालय के बहाने प्रवृत्तियों पर प्रहार। बहुत बढ़िया व्यंग्य। बधाई