श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भाईचारे का सन्देश देती अतिसुन्दर लघुकथा “बूंदी के लड्डू”। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 96 ☆
लघुकथा – बूंदी के लड्डू
गणेश उत्सव का माहौल। घर और पास पड़ोस मोहल्ले में बहुत ही धूमधाम से गणेश उत्सव मनाया जा रहा था। पंडाल पर गणपति जी विराजे थे। राजू अपने दादा- दादी से रोज कुछ ना कुछ गणपति जी के बारे में सुनता था।
दादा जी आज उसे बूंदी के लड्डू की महिमा बता रहे थे कि क्यों पसंद है गणेश जी को लड्डू? बेसन से अलग-अलग मोती जैसे तलकर शक्कर की चाशनी में सब एक साथ पकड़कर लड्डू बनता है। गणेश जी भी सभी को मिला कर रखना चाहते हैं। उनकी पूजन का अर्थ भी यही है कि सभी मनुष्य आपस में प्रेम से रहें और बूंदी के लड्डू की तरह मीठे और मिलकर रहे।
राजू कुछ देर सुनता रहा फिर दौड़कर पड़ोस के अंकल- आंटी देशमुख के घर गया और छोटे से हाथ से निकालकर बूंदी का लड्डू उनके हाथ पर दे दिया। और कहा-” गणपति जी ने कहा है बूंदी के लड्डू की तरह रहना सीखें” और दौड़ कर फिर अपने घर के ऊपर के कमरे में बैठे अपने पापा को भी लड्डू दिया। और कहा कि – “गणपति ने कहा है कि हमें लड्डू जैसा रहना चाहिए।
थोड़ी देर पापा और देशमुख अंकल सोचते रहे। तब तक मोहल्ले में पंडाल से गणपति की आरती की आवाज आने लगी। दोनों अपने-अपने घर से डिब्बों में लड्डू लेकर पहुंचे और फिर क्या था। ‘साॅरी, मुझे माफ करना’, ‘नहीं सॉरी मैं बोलता हूँ मुझे माफ करना’, एक दूसरे को कहने लगे।
कुछ दिनों से जो मनमुटाव चल रहा था। अचानक सब मिलजुल कर ठहाका लगाने लगे।
दादा जी को समझ नहीं आया कि कल तक जो देशमुख के नाम से चिढ़ता था। आज अपने हाथ में हाथ पकड़े खड़े हैं। उन्हें क्या पता था कि बूंदी के लड्डू कितने मीठे हैं जिन्हें किसी ने अपने छोटे – छोटे हाथों से सब जगह बांट दिया है।
© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈