श्री जय प्रकाश पाण्डेय
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है भाई – भाई और पिता के संबंधों पर आधारित एक विचारणीय व्यंग्य ‘डर’).
☆ व्यंग्य # 104 ☆ डर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆
ट्रेन फुल स्पीड से भाग रही है।
– कहां जा रहे हैं?
– प्रयागराज… अस्थि विसर्जन के लिए।
थोड़ी देर में दोनों भाई खर्चे के तनाव में लड़ पड़े।
हमने समझाया- देखो भाई, जमाना बदल गया है, रिश्तों का स्वाद हर रोज बदलता है; कभी मीठा, कभी नमकीन कभी खारा…
– पिता के अस्थि विसर्जन के लिए जा रहे हो तो छोटी-छोटी बातों में लड़ना नहीं चाहिए।
– आपका कहना सही है, पर ये छोटा भाई नहीं समझता ,जब पिताजी जिंदा रहे तब उनसे बात बात में खुचड़ करता था।
– हमें एक मुहावरा याद आ गया, ‘जियत बाप से दंगमदंगा, मरे हाड़ पहुंचावे गंगा….
– छोटा भाई बोला… हम इनसे कहे थे कि बबुआ के हाड़ गांव की नदिया मे सिरा देओ, खर्चा बचेगा।
– काहे झूठ बोलते हो छोटे भाई… तुम्हीं ने तो कहा था कि बबुआ की हड्डी गंगा-जमुना संगम में डालने से हड्डी पानी में जल्दी घुल जाएगी, नहीं तो हड्डी कोई वैज्ञानिक के हाथ पड़ जाएगी तो बाप की हड्डी से फिर वही बाप बनाकर खड़ा कर देगा, तो और मुश्किल हो जाएगी।
© जय प्रकाश पाण्डेय
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भाई, मजेदार व्यंग बधाई