(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है स्व रामनुजलाल श्रीवास्तव जी के कथा संग्रह “हम इश्क के बन्दे हैं” – की समीक्षा।
पुस्तक : हम इश्क के बंदे हैं (कहानी संग्रह)
लेखक : स्व रामानुजलाल श्रीवास्तव
प्रकाशक : त्रिवेणी परिषद, यादव कालोनी जबलपुर
मूल्य : २०० रु ,
पृष्ठ : १५०
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 99 – “हम इश्क के बंदे हैं” – स्व रामानुजलाल श्रीवास्तव ☆
स्व रामानुजलाल श्रीवास्तव ‘ऊंट’ जी ने हिन्दी गीत , कवितायें , उर्दू गजलें , कहानियां , लेख ,पत्रकारिता , प्रकाशन आदि बहुविध साहित्यिक जीवन जिया . उन्होंने प्रेमा प्रकाशन के माध्यम से साहित्यिक में महत्वपूर्ण योगदान दिया . तत्कालीन साहित्यिक पत्रिकाओं में ‘प्रेमा’ की बडी प्रतिष्ठा रही है . उन की धरोहर कहानी कृति “हम इश्क के बंदे हैं ” जिसका प्रथम प्रकाशन १९६० में हुआ था , उसे त्रिवेणी परिषद के माध्यम से साधना उपाध्याय जी ने संस्कृति संचालनालय म प्र के सहयोग से पुनर्प्रकाशित किया है . इस कहानी संग्रह में शीर्षक कहानी हम इश्क के बंदे हैं , बिजली , कहानी चक्र , मूंगे की माला , क्यू ई डी , मयूरी , जय पराजय , वही रफ्तार , भूल भुलैया , बहेलिनी और बहेलिया , आठ रुपये साढ़े सात आने , तथा माला नारियल कुल १२ कहानियां संग्रहित हैं .
प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी की पंक्तियां हैं
सुख दुखो की आकस्मिक रवानी जिंदगी
हार जीतो की बड़ी उलझी कहानी जिंदगी
भाव कई अनुभूतियां कई , सोच कई व्यवहार कई
पर रही नित भावना की राजधानी जिंदगी .
ये सारी कहानियां सुख दुख , हार जीत , जीवन की अनुभूतियों , व्यवहार , इसी भावना की राजधानी के गिर्द बड़ी कसावट और शिल्प सौंदर्य से बुनी गई हैं . ये सारी ही कहानियां पाठक के सम्मुख अपने वर्णन से हिन्दी कथासम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानियों जैसा दृश्य उपस्थित करती हैं . कहानी “वही रफ्तार” को ही लें …
कहानी १९५७ के समय काल की है अर्थात १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के सौ बरस बाद का समय . तब के जबलपुर का इतिहास , भूगोल , अर्थशास्त्र , समाज शास्त्र , राजनीति सब कुछ मिलता है कहानी में . सचमुच साहित्य समाज का दर्पण है .
कहानी से ही उधृत करता हूं ” अरे अब तो अंग्रेजी राज्य नहीं है . अब तो अपना राज्य है . अपना कानून है . अब तो होश में आओ रे मूर्खो . “
हम आप भी तो यही लिख रहे हैं , मतलब साहित्यकार पीढ़ी दर पीढ़ी लिख रहा है , वह लिख ही तो सकता है . पर लगता है मूर्ख होश में आने से रहे .
एक दूसरा अंश है , जिसमें रिक्शा वाला सवारी से संवाद करते हुये कहता है ” दिन भर में रुपया डेढ़ रुपया मार कूट कर बचा भी तो मंहगाई ऐसी लगी है कि पेट को ही पूरा नहीं पड़ता ” . कहानी का यह अंश बतलाता है १९५७ में रिक्शा वाला दिन भर में रुपये डेढ़ रुपये कमा लेता था. जो उसे कम पड़ता था . कमोबेश यही संवाद आज भी कायम हैं . यह जरूर है कि अब रिक्शे की जगह आटो ने ले ली है , रुपये डेढ़ रुपये की बचत तीन चार सौ में बदल गई है .
इस कहानी में तत्कालीन जबलपुर का वर्णन भी बड़ा रोचक है ” देवताल के नुक्कड़ पर , गढ़ा की संकरी सड़क में कुछ घुस कर एक मोटर दीख पड़ी ” या “ग्वारी घाट सड़क पर रिक्शेवाला दाहिने मुड़ने लगा तभी सवारी ने कहा सीधे चलो चौथे पुल से इधर दो दो रेल्वे फाटक पड़ेंगे ” छोटी लाइन की समाप्ति और शास्त्री ब्रिज के निर्माण ने यह भूगोल अवश्य बदल दिया है .
अब आपके सम्मुख इस कहानी का कथानक बता देने का समय आ गया है . जो आपको निश्चित ही चमत्कृत कर देगा , यही कहानीकार की विशिष्ट कला है .
आज भी रोज कमाने खाने वाले मजदूर में यह प्रवृत्ति देखने में आती है कि यदि किसी तरह उनके पास अतिरिक्त कमाई हो जावे तो बजाय उसे संग्रह करने के वह अगले दिन काम पर ही नही जाते . वही रफ्तार कहानी में एक रिक्शे वाले जग्गू को उसके चातुर्य से , एक प्रेमी जोड़े से अतिरिक्त आय हो जाती है . वह स्वयं साहब बनकर मजे करना चाहता है और एक सरल हृदय बारेलाल के रिक्शे पर सवारी करता है . साहबी स्वांग करते हुये जग्गू बारेलाल के रिक्शे से अपने मित्र तीसरे रिक्शेवाले मनसुख के घर पहुंचता है . जब बारेलाल पर यह भेद खुलता है कि उस पर अकड़ दिखाता रौब झाड़ता जो उसके रिक्शे की सवारी कर रहा था वह स्वयं भी एक रिक्शेवाला ही है , तो वह भौंचक रह जाता है . किन्तु फिर भी वह उससे किराया लेने से मना कर देता है तब तीसरा रिक्शे वाला मनसुख जिसके घर जग्गू पहुंचता है वह कहता है ” भाई बारेलाल , यह सच है कि नाई नाई से हजामत की बनवाई नही लेता . पर मैने जो रूखी सूखी बनाई है , आओ हम तीनो बांटकर खा लें और इस सालेसे पूछें कि आज क्या स्वांग किया है .
बारेलाल कहता है , हाँ यह हो सकता है .
बारे लाल जग्गू से कहता है ” साले बेईमान एक दिन की बादशाहत में जिंदगी कट जायेगी ? गधे , घोड़े बैल का काम करो , आधा पेट खाओ . फैक्टरी की छंटनी के मारे ऐसी भीड़ कि रिक्शा मिलना भी हराम है . ….
मनसुख बोला धीरज धरो भैया सब ठीक हो जायेगा .
कैसे ?
ऐसे कि जैसे जग्गू बाबू बना था . समय आने पर नकली बाबू का भेद खुल गया न . इसी तरह नकली स्वराज्य और असली स्वराज्य का भेद खुल जायेगा . और समय आते क्या देर लगती है ?
आ ही तो गया सत्तावन गदर का साल .
सत्तावन अत्ठावन सब बीत गये परन्तु गरीबों के लिये तो वही रफ्तार बेढ़ंगी जो पहले थी सो अब भी है .
इस वाक्य से कहानी पूरी होती है . स्व रामानुज लाल श्रीवास्तव की अभिव्यक्ति भारत के अधिकांश गरीब तबके की मन की स्थिति का निरूपण है . कहानियां सत्य घटनाओ पर आधारित अनुभूत समझ आती हैं .
प्रश्न है कि क्या राजनीती की लकड़ी ही हांड़ी आज भी वैसे ही चुनाव दर चुनाव नही चढ़ाई जा रही . जग्गू , मनसुख और बारेलाल की पीढ़ीयां बदल चुकी हैं , पर समाज की विसंगतियों की वही रफ्तार कायम है .
सभी कहानियां भी ऐसी ही प्रभावकारी हैं . किताब जरूर पढ़िये . सत्साहित्य के पुनर्प्रकाशन की जो ज्योति त्रिवेणी परिषद ने प्रारंभ की है , वह प्रशंसनीय है . ऐसा पुराना साहित्य जितना अधिक प्रचारित प्रसारित हो बढ़िया है . यह नई पीढ़ी को दिशा देता है . स्वागतेय है .
समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈