श्री संतोष नेमा “संतोष”
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं “संतोष के दोहे”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 91 ☆
☆ संतोष के दोहे ☆
घर आँगन की नींव में, प्रेम और विश्वास।
बंधन केवल रक्त का, रखता कभी न पास
मात-पिता से ही मिला, सुंदर घर परिवार
रिश्तों की इस डोर में, खूब पनपता प्यार
महल अटारी को नहीं, समझें घर संसार
घर सच्चा तो है वही, जहाँ परस्पर प्यार
पगडंडी में सो रहे, कितने जन लाचार
मजदूरों की सोचिए, जो हैं बेघर बार।
वक्त आज का देखिए, नव पीढ़ी की सोच
रखते जो माँ बाप को, वशीभूत संकोच।।
घर की शोभा वृद्ध हैं, इनका रखिए मान
रौनक इनसे ही बढ़े, खूब करो सम्मान
साँझे चूल्हे टूटकर, गाते निंदा राग
नई सदी के दौर में, खत्म हुआ अनुराग
पिता गए सुरलोक को, सब कुछ अपना त्याग
संबंधों के द्वार पर, बँटवारे की आग
कलियुग में सीमित हुए, आज सभी परिवार
घर बन गए मकान सब, सिमट गया संसार
रहें परस्पर प्रेम से, यह जीवन का कोष
मुट्ठी बाँधे चल पड़ो, गर चाहें “संतोष”
© संतोष कुमार नेमा “संतोष”
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