डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख मौन : एक संजीवनी। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 103 ☆

☆ मौन : एक संजीवनी ☆

‘व्यर्थ न कर अपने अल्फाज़, हर किसी के लिए/ बस ख़ामोश रह कर देख, तुझे समझता कौन है’… ओशो का यह कथन महात्मा बुद्ध की भावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान कर शब्दबद्ध करता है, उजागर करता है कि हमारी समस्या का समाधान सिर्फ़ हमारे पास है; दूसरे के पास तो केवल सुझाव होते हैं। ओशो ने मानव से मौन रहने का आग्रह करते हुए कहा है कि किसी से संवाद व जिरह करने का औचित्य नहीं, क्योंकि सब आपकी भावनाओं को समझते नहीं। इसीलिए ऐ! मानव तू प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर; ख़ामोश रहकर उनके व्यवहार को देख, तुम्हें सब समझ में आ जाएगा अर्थात् तू इस तथ्य से अवगत हो जाएगा कि कौन अपना व पराया कौन है? सो! दूसरों के बारे में सोचना व उनके बारे में टीका-टिप्पणी करना व्यर्थ है, निरर्थक है। वे लोग आपके बारे में अनर्गल चर्चा करेंगे, दोषारोपण करेंगे और आपको कहीं का नहीं छोड़ेंगे। इसलिए प्रतीक्षा करना सदैव बेहतर है तथा सभी समस्याओं का समाधान इनमें ही निहित है।

मुझे यह स्वीकारने में तनिक भी संकोच नहीं कि ख़ामोश रहने व प्रत्युत्तर न देने से समस्या जन्म ही नहीं लेती। सो! ‘न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी’ अर्थात् जब समस्या होगी ही नहीं, तो समाधान की अपेक्षा कहां रहेगी? इसके दूसरे पक्ष पर भी चर्चा करना यहां आवश्यक है…जब समस्या होगी ही नहीं, तो स्पष्टीकरण देने व अपना पक्ष रखने की ज़रूरत कहां महसूस होगी? वैसे भी सत्य का अनुसरण करने वाले को कभी भी स्पष्टीकरण नहीं देना चाहिए, क्योंकि वह आपको जहां दुर्बल बनाता है; वहीं आप पर अंगुलियां भी उठने लगती हैं। वह आपको पथ-विचलित करता है और आपका ध्यान स्वत: भटक जाता है। लक्ष्य-पूर्ति न होने की स्थिति में जहां आपका अवसाद की स्थिति में पदार्पण करना निश्चित हो जाता है; वहीं आपको सावन के अंधे की भांति, सब हरा ही हरा दिखाई पड़ने लगता है। फलत: मानव इस भंवर से चाहकर भी नहीं निकल पाता और वह उसके जीवन की प्रमुख त्रासदी बन जाती है।

प्रश्न उठता है, जब हमारी समस्या का समाधान हमारे पास है, तो उद्वेलन व भटकाव क्यों … दूसरों से सहानुभूति की अपेक्षा क्यों… प्रशंसा पाने की दरक़ार क्यों? दूसरे तो आपको सलाह-सुझाव दे सकते हैं; समस्या का हल नहीं, क्योंकि ‘जाके पैर न फूटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई’ अर्थात् जूता पहनने वाला ही जानता है कि जूता कहां काटता है? जिसे कांटा लगता है, वही दर्द महसूसता है। जो पीड़ित, दु:खी व परेशान होता है, वह अनुभव करता है कि उसका मूल स्त्रोत अर्थात् कारण क्या है? विज्ञान भी कार्य-कारण संबंध पर प्रकाश डाल कर ही परिणाम पर पहुंचता है। सो! हमें कभी भी हैरान-परेशान नहीं होना चाहिए…. न ही किसी से व्यर्थ की उम्मीद करनी चाहिए। जब आप सक्षम हैं और अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं खोज कर उसका निवारण करने में समर्थ हैं, तो विपत्ति काल में इधर-उधर झांकने व दूसरों से सहायता की भीख मांगने की दरक़ार क्यों?

यह सार्वभौमिक सत्य है कि विपदा के साथी होते हैं …विद्या, विनय, विवेक। सो! सबसे पहले ज़रूरत है, उसका उद्गम तलाशने की, क्योंकि जब हमें उसके मूल कारण के बारे में ज्ञान प्राप्त हो जाता है; समाधान स्वत: हमारे सम्मुख उपस्थित हो जाता है। इसलिए हमें किसी भी परिस्थिति में अपना आपा नहीं खोना चाहिए अर्थात् ‘विद्या ददाति विनयम्’– विद्या हमें विनम्रता सिखाती है। वह मानव की सबसे बड़ी पूंजी है, जिसके माध्यम से हम जीवन की हर आपदा का सामना कर सकते हैं। विनम्रता करुणा की जनक है। करुणाशील व्यक्ति में स्नेह, प्रेम, सौहार्द, सहानुभूति, सहनशीलता आदि गुण स्वत: प्रकट हो जाते हैं। विनम्र व्यक्ति कभी किसी का बुरा करने के बारे में सोच भी नहीं सकता। बड़े से बड़े क्रूर, निर्दयी व आततायी भी उसका अहित व अमंगल नहीं कर सकते, क्योंकि जब उन्हें प्रत्युत्तर अथवा प्रतिक्रिया प्राप्त नहीं होती, तो वे भी यही सोचने लगते हैं कि व्यर्थ में क्यों माथा फोड़ा जाए अर्थात् अपना समय नष्ट किया जाए? वे स्वयं उससे दरकिनार कर सुक़ून पाते हैं, क्योंकि उन्हें तो दूसरे को नीचा दिखा कर व प्रताड़ित करके ही आनंद की प्राप्ति होती है। परंतु जब तक विनम्र व्यक्ति शांत रहता है, निरुत्तर रहता है, तो उसे संघर्ष की सार्थकता ही अनुभव नहीं होती और समस्या का स्वत: अंत हो जाता है। विद्या से विवेक जाग्रत होता है, जिससे हमें मित्र-शत्रु, उचित-अनुचित, लाभ-हानि, उपयोगी-अनुपयोगी आदि के बारे में जानकारी प्राप्त होती है और हम सच्चाई के मार्ग पर चलते हुए अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं। सत्य का मार्ग कल्याणकारी होता है; सुंदर होता है; सबका प्रिय होता है। इसलिए हम ख़ामोश रह कर ही अपने इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं।

यदि हम प्रतिपक्ष का अवलोकन करें, तो वह हमारे पथ में अवरोधक होता है; राह में कांटे बिछाता है;  निंदा कर हमें उलझाता है, ताकि हम अपनी मंज़िल पर न पहुंच सकें। सो! इन अप्रत्याशित परिस्थितियों में आवश्यकता होती है– विवेक से सोच-समझ कर कार्य को अंजाम देने की, ताकि हम अपनी मंज़िल पर पहुंच जाएं। विवेक हमें निंदा-स्तुति के व्यूह में नहीं उलझने देता। ज्ञानी व विवेकशील व्यक्ति सदैव समझौता करने विश्वास करता है.. मौन उसका आभूषण होता है और धैर्य सच्चा साथी; जिसका दामन वह कभी नहीं छोड़ता। आत्मकेंद्रितता व एकांत उसके लिए संजीवनी अर्थात् रामबाण होते हैं, जो उसकी तमाम कठिन व विकट समस्याओं का समाधान करते हैं। एकांत हमें आत्मावलोकन का अवसर प्रदान करता है, तथा उस पावन-सलिला में अवगाहन कर हम श्रेय-प्रेय रूपी अनमोल रत्नों को प्राप्त करने में सक्षम हो सकते हैं। सो! हमें शांत भाव से परिस्थितियों का अवलोकन करना चाहिए। इसी संदर्भ में इस विषय पर भी चर्चा करना अहम् है कि ‘सब्र और सच्चाई एक ऐसी सवारी है, जो अपने शह़सवार को कभी नहीं गिरने देती… न किसी के कदमों में, न किसी की नज़रों में’ अर्थात् सब्र, संतोष  व संतुष्टि पर्यायवाची शब्द हैं। मझे याद आ रही है, रहीम जी के दोहे की वह पंक्ति ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान’ अर्थात् संतोष रूपी धन प्राप्त करने के पश्चात् जीवन में कोई तमन्ना शेष नहीं रह जाती। सांसारिक प्रलोभन व माया-मोह के बंधन मानव को उलझा नहीं सकते। सो! वह सदैव शांत भाव में रहता है, जहां केवल आनंद ही आनंद होता है। इसके लिए ज़रूरी है… सत्य की राह पर चलने की, क्योंकि सत्य सात परदों के पीछे से भी प्रकट होने की सामर्थ्य रखता है। सत्य का अनुयायी अकारण दूसरों की प्रशंसा व चाटुकारिता में विश्वास नहीं करता, क्योंकि उन्हें प्रसन्न करने के लिए व्यक्ति को तनाव, चिंता व अवसाद से गुज़रना पड़ता है।

यह कोटिशः सत्य है कि मन-चाहा न होने पर हम हताश-निराश व हैरान-परेशान रहते हैं और वह स्थिति तनाव की जनक व पोषक है। वह हमें गहन चिंता-रूपी सागर के अथाह जल में लाकर छोड़ देती है; जहां से निकल पाना मानव के लिए असंभव हो जाता है। अवसाद-ग्रस्त व्यक्ति आत्मविश्वास खो बैठता है और उसे समस्त संसार में अंधकार ही अंधकार दिखाई पड़ता है। ऐसा व्यक्ति सदैव किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में रहता है; सब उसे शत्रु-सम भासते हैं, और वह स्वयं को असहाय, विवश व मजबूर अनुभव करता है। उस स्थिति से उबरने के लिए आवश्यकता होती है… मानव को नकारात्मक सोच को त्याग, सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की …जो आस्था व विश्वास से उपजता है। परमात्मा में आस्था व अंतर्मन में निहित दैवीय शक्तियों पर विश्वास रखने से ही वह आगामी आपदाओं से लोहा ले सकता है।

छोटी सोच, शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान को। ‘सुनना सीख लो, सहना स्वत: सीख जाओगे।’ इसके निमित्त हमें अपनी सोच को बड़ा बनाना होगा; उदार-हृदय बनना होगा, क्योंकि छोटी सोच का दायरा बहुत संकुचित होता है और व्यक्ति कूप-मंडूक बन उसी भंवर में गोते लगाता रहता है और प्रसन्न रहता है। उसके अतिरिक्त न वह कुछ जानता है, न ही जानने की इच्छा रखता है। वह इसी भ्रम में जीता है कि उससे अधिक बुद्धिमान कोई है ही नहीं। सो! वह कभी भी दूसरे की सुनना पसंद नहीं करता; अपनी-अपनी डफली बजाने व राग अलापने में सुक़ून का अनुभव करता है। दूसरे शब्दों में वह केवल अपनी-अपनी हांकता है और शेखी बघारता है। उसे न किसी से कोई संबंध होता है, न ही सरोकार। परंतु समझदार व सफल मानव दूसरे की सुनता अधिक है, अपनी कहता कम है। सो! डींगें हांकने वाला व्यक्ति सदैव मूर्ख कहलाता है। उसे अभिमान होता है, अपनी विद्वत्ता पर और वह स्वयं को सबसे अधिक बुद्धिमान प्राणी समझता है। वह सारा जीवन उसी भ्रम में व्यर्थ नष्ट कर देता है। जीवन के अंतिम क्षणों में वह लख चौरासी से भी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।

ग़ौरतलब है कि हर समस्या के केवल दो विकल्प नहीं होते…परंतु मूर्ख व्यक्ति इसी भ्रम में रहता है और तीसरे विकल्प की ओर उसका ध्यान कदापि नहीं जाता। यदि उसकी सोच का दायरा विशाल होगा, तो समस्या का समाधान अवश्य निकल जाएगा। उसे आंसू नहीं बहाने पड़ेंगे, क्योंकि संसार दु:खालय नहीं, बल्कि सुख और दु:ख तो हमारे अतिथि हैं; आते-जाते रहते हैं। एक के जाने के पश्चात् दूसरा स्वयमेव प्रकट हो जाता है। उनमें से कोई भी स्थायी नहीं है। इसलिए वे कभी इकट्ठे नहीं आते। मानव को दु:ख, आपदा व विपत्ति में कभी भी घबराना नहीं चाहिए और न ही सुख में फूलने का कोई औचित्य है। दोनों स्थितियां भयावह हैं और घातक सिद्ध हो सकती हैं। इसलिए इनमें समन्वय व सामंजस्य रखना आवश्यक है। जो इनसे ऊपर उठ जाता है; उसका जीवन सफल हो जाता है; अनुकरणीय हो जाता है और वह महान् विभूति की संज्ञा प्राप्त कर विश्व में गौरवान्वित अनुभव करता है। उसे भौतिक व सांसारिक सुख, प्रलोभन आदि आकर्षित नहीं कर सकते, क्योंकि वे उसे नश्वर भासते हैं। ऐसा नीर-क्षीर विवेकी मानव हर स्थिति में सम रहता है, क्योंकि वह सृष्टि के परिवर्तनशीलता के सिद्धांत से अवगत होता है। वह जानता व समझता है कि ‘जो जन्मता है, मृत्यु को अवश्य प्राप्त होता है। इसलिए उसका शोक क्यों?’ ऐसे व्यक्ति के मित्र व शत्रु नहीं होते। वह अजातशत्रु कहलाता है। वह सबके हित व मंगल की कामना करता है; किसी के प्रति ईर्ष्या व द्वेष भाव नहीं रखता और स्व-पर से बहुत ऊपर उठ जाता है। सब उसकी प्रशंसा करते हैं तथा उसका साथ पाने को आकुल-व्याकुल रहते हैं। सो! वह सबकी आंखों का तारा हो जाता है और सब उससे स्नेह करते हैं; उसकी वाणी सुनने को लालायित व व्यग्र रहते हैं तथा उसका सान्निध्य पाकर स्वयं को धन्य समझते हैं।

वह मौन को नव-निधि स्वीकारता है और इस तथ्य से अवगत रहता है कि नब्बे प्रतिशत समस्याओं का समाधान मौन रहने तथा तत्काल उत्तर देने व तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त न करने से हो जाता है। जीवन में समस्याओं से उसका दूर का नाता भी नहीं रहता। ‘एक चुप, सौ सुख’ बहुत पुरानी कहावत है, जो कल भी सत्य व सार्थक थी; आज भी है और कल भी रहेगी। इसलिए मानव को जो घटित हो रहा है; उसे साक्षी भाव से देखना चाहिए। उन परिस्थितियों में सहजता बनाए रखनी चाहिए तथा संबंधों की अहमियत स्वीकारनी चाहिए। रिश्ते हमारे जीवन को हर्ष, उल्लास, उमंग व उन्माद से आप्लावित व  ऊर्जस्वित करते हैं तथा मौन में वह संजीवनी है, जिसमें सभी असाध्य रोगों का शमन करने की शक्ति है, क्षमता है, सामर्थ्य है। सो! एकांत व ख़ामोशी को अपना साथी समझ मौन को जीवन में धारण करना श्रेयस्कर है, क्योंकि यही अलौकिक आनंद व जीते जी मुक्ति पाने का उपादान है, सोपान है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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