(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा रचित एक विचारणीय कविता ‘लोक साहित्य ’। इस विचारणीय कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 119 ☆
कविता – लोक साहित्य
लोकसहित्य
किताबों में बंधे सफे नहीं
पीढ़ियों की
अनुभव जन्य विरासत है.
कपड़ों की क्रीज में फंसे
शिष्ट समाज के संभ्रांत सज्जनो
दे सकते हो
गालियां तुम किसी को !
उस सहजता से
जिस आत्मीयता से
भरपेट भोजन करवाते हुये
गालियां दे लेती हैं
लोक जीवन में
मोहल्ले की महिलाएं भी
बारातियों को
तुम्हें लिपिबद्ध करना है ,
तो तुम लिखते रहो
शोध कर्ताओ
इन लयबद्ध
समवेत स्वरों को
ये अलिखित
लोक गीत
जीवन के,
कापीराइट से
मुक्त हैं
ये
उन्मुक्त भाव हैं
अंतर्मन के
जो पीढ़ी दर पीढ़ी
परिष्कृत होते हैं
नयी इबारत में
समय और परिवेश
को स्वयं में समेट कर
मुखरित होते हैं
समवेत स्वरों में
खान-पान, पहनावा-ओढ़ावा,
गीत, संगीत
कला-कौशल, भाषा
कुल देवी, देवता
सब अलग-अलग
घर घर, परिवार
कुटुंब में, गांव गांव में
यह विविधता ही
लोक संस्कृति है
कितना सुसम्पन्न
कितना सकारात्मक
है लोक का जन
वे दूकान बन्द नहीं करते
बढ़ाते हैं हर रात
जहाँ घर से जाता व्यक्ति
कहता है आता हूं
प्रवृत्तियों का प्रतीक है
एक एक मुहावरा
और कहावत
लोक साहित्य
अनुभूतिमयी
अभिव्यंजना है
सर्व साधारण की
जीवन शैली की ।
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३
मो ७०००३७५७९८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈