श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “रिकॉर्डस की होड़”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 73 – रिकॉर्डस की होड़

बड़े जोड़ तोड़ से सिक्का फिट किया कि अब की बार तो विश्व रिकार्ड बनाना ही है। इसके लिए गूगल महाराज के द्वारे जा खड़े हुए। सुनते हैं उनके दरबार से कोई खाली नहीं जाता है। सो कैसे विश्व रिकार्ड बने इसके लिए सर्च करना शुरू कर दिया।

सब कुछ अच्छा चल रहा था पर भाषा की दिक्कत आ गयी। अब अंतरराष्ट्रीय कार्य करेंगे तो भाषा अंग्रेजी होगी। गिटिर पिटर करना तो सरल है पर सही अर्थ समझते हुए फॉर्म भरना कठिन होता है। लोगों की टीम बनाकर इसको भी सहज बना लिया गया। लक्ष्य बड़ा था सो परिश्रम भी उसी अनुपात में किया जाना था। कुछ लोग थोड़ी दूर तक साथ चले फिर अलग हो गए, ऐसा आखिरी क्षणों तक चलता रहा। पर आने जाने से कुछ नहीं होता जब ठाना है तो कार्य करके ही रहेंगे। लोगों की जरूरत तो पड़ती ही सो खोजबीन चालू थी। बड़े- बड़े वादे किए गए। पोस्टरों की चकाचौंध ने सबको भरमाया, गीत, कहानी, गजलों से होते हुए एक से एक प्रस्तुतियाँ होने वाली थीं किन्तु वही कम में ज्यादा के आनंद ने सभी को लोभ पिपासू बना दिया था। मेरा नाम उसके नाम से कम हो रहा है, मेरी फोटो हाइलाइट नहीं हुई, मेरा संचालन श्रेष्ठ है उसके बाद भी मुझे कम महत्व मिला बस इसी जद्दोजहद में मूल उद्देश्य से सभी प्रतिभागी भटकने लगे। कोई किसी लय में, कोई किसी राग में सुर अलापे जा रहा था। बस सबमें एक ही बात एक थी वो अपने नाम की चाह और चाह।

इसी तरह जिसके हाथ माइक लगा उसने अपना बखान चालू कर दिया। कहते हैं कि माइक और बाइक तब तक इस्तेमाल न करें जब तक स्वयं पर पूरा नियंत्रण न हो। बस कार्यक्रम रूपी बाइक चल पड़ी अपने लक्ष्य की ओर, बीच में कहीं रास्ता भूलते तो कोई न कोई बता देता। थोड़ा देर सवेर अवश्य होती रही किन्तु सवार नहीं रुके चलते रहे। वैसे भी जिंदगी चलने का नाम है।

ये चाह भी चाहत से बढ़ते हुए कभी न खत्म वाले इंतजार की तरह बढ़ती ही जा रही है। लालसा का रोग जिसे हुआ समझो उसको भगवान भी नहीं बचा सकते हैं। मेरा तेरा ने सबको जोड़ा जरूर है बस लंबे समय तक वही लोग बंध पाए जो आपस में किसी न किसी कारण से निर्भर थे।

जब तक एक दूसरे के प्रति परस्पर निर्भरता नहीं  होगी तब तक अभिन्नता संभव नहीं। यहाँ मछली  और पानी के साथ को समझिए कि किस तरह पानी से दूर होते ही वो प्राण त्याग देती है। ये  त्याग नहीं मजबूरी है  चूँकि  उसकी साँस  जल में घुली हुई ऑक्सीजन से ही चल सकती है,  इस तरह से प्रकृति ने उसे जल पर निर्भर कर दिया है।

ईश्वर ने सभी के लिए कुछ न कुछ तय करके  रखा है जिसे स्वीकार करना हमारा नैतिक दायित्व है। अपनी क्षमता के अनुरूप कार्य करने पर ही उन्नति संभव है।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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