डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख युवा पीढ़ी संस्कारहीन क्यों ? यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 105 ☆

☆ युवा पीढ़ी संस्कारहीन क्यों ? ☆

भोर होते समाचार पत्र हाथ में लेते ही मस्तिष्क की नसें झनझना उठती हैं… अमुक ने नाबालिग़ से दुष्कर्म कर, उसका वीडियो वॉयरल करने की धमकी दी; कहीं मज़दूरिन की चार वर्ष की बेटी बेसमेंट में लहूलुहान दशा में पाई गई; कहीं विवाहिता से उसके पति के सम्मुख दुष्कर्म; तो कहीं मासूम बच्ची को स्कूल से लौटते हुए अग़वा कर हफ़्तों नहीं, महीनों तक बंदी बनाकर उससे बलात्कार; कहीं ज़मीन या मकान की रजिस्ट्री अपने नाम पर करवाने के लिए वृद्धा या विधवा को हवस का शिकार बनाने का प्रचलन सामान्य-सा हो गया है। यह आमजन को कटघरे में खड़ा करता है… आखिर क्यों मौन हैं हम सब…ऐसे असामाजिक तत्वों का विरोध-बहिष्कार क्यों नहीं…उन्हें सरे-आम फांसी की सज़ा क्यों नहीं … यह तो बहुत कम है, एक पल में मुक्ति…नहीं… नहीं; उन्हें तो नपुंसक बना आजीवन सश्रम, कठोर कारावास की सज़ा दी जानी चाहिए, ताकि उनके संबंधियों को उसे असहाय दशा में देखने का दुर्लभ अवसर प्राप्त हो…मिलने का नहीं, ताकि वे अपने लाड़-प्यार व स्वतंत्रता देने का अंजाम देख, प्रायश्चित हेतु केवल आंसू बहाते रहें और दूसरों को यह संदेश दें, कि ‘वे भविष्य में अपने बच्चों से सख्ती से पेश आएं…उन्हें सुसंस्कार दें, ताकि वे समाज में सिर उठा कर जी सकें।’

परन्तु यह सब होता कहां है? कहां दी जाती है उन्हें …कानून के अंतर्गत फांसी की कठोर व भीषणतम सज़ा…यह तो मात्र जुमला बनकर रह गया है। कानून की देवी की आंखों, कानों पर बंधी पट्टी इस बात का संकेत है कि वह अंधा व बहरा है…आज- कल वह पीड़ित पक्ष की सुनता ही कहां है…अक्सर तो वह रसूखदार लोगों के हाथों की कठपुतली बन कर कार्य करता है…और शक़ की बिनाह पर छूट जाते हैं वे दुष्कर्मी …वैसे भी फांसी की सज़ा मिलने पर भी उन्हें अधिकार है; राष्ट्रपति से दया की ग़ुहार लगाने का, जिसका फैसला होने में एक लंबा समय गुज़र जाता है।

ज़रा सोचिए! कितने मानसिक दबाव में जीना पड़ता होगा उस पीड़िता व उसके परिवारजनों को? हर दिन गाली-गलौज, केस वापस लेने का दबाव, अनुरोध व धमकी तथा नित्य नए हादसे… उनकी ज़िन्दगी को नरक बना कर रख देते हैं। ज़रा ग़ौर कीजिए, उन्नाव की पीड़िता …कितनी शारीरिक पीड़ा व मानसिक यंत्रणा से गुज़र रही होगी वह मासूम… किस बात की सज़ा मिली रही है, उसके माता-पिता व परिजनों को… सोचिए! अपराधिनी वह पीड़िता है या राजनेता, जो दो वर्ष से उस परिवार पर ज़ुल्म ढा रहा है। क्या यही है, सत्य की राह पर चलने का अंजाम…अपने अधिकारों की मांग करने का इनाम? शायद! आपबीती अर्थात् स्वयं पर हुए ज़ुल्मों की दास्तान बखान कर, केस दर्ज कराने का साहस जुटाना जुर्म है? ऐसा लगता है कि सज़ा प्रतिपक्षी ‘औ’ दुष्कर्मी को नहीं, पीड़िता को मिल रही है।

यदि तुरंत कार्यवाही कर निर्णय लेना अनिवार्य कर दिया जाता, तो उसे इतनी भीषण यातनाएं न सहन करनी पड़तीं और न ही उन लोगों के हौंसले इतने बुलंद होते…वे उस परिणाम से सीख लेकर, भविष्य में गलत राह पर न चलते और बेटियों के माता-पिता को दहशत के साये में अपना जीवन बसर नहीं करना पड़ता। हर दिन निर्भया व आसिफ़ा दरिंदगी का शिकार न होतीं और लोगों को न्याय प्राप्त करने हेतु केंडल मार्च निकाल व धरने देकर आक्रोश की अभिव्यक्ति न करनी पड़ती… और बेटी के जन्म पर घर में मातम-सा माहौल पसरा नहीं दिखाई पड़ता।

एक प्रश्न हर दिन मन में कुलबुलाता है कि आखिर हमारी कानून-व्यवस्था इतनी लचर क्यों? विदेशों में ऐसे हादसे क्यों नहीं होते… वहां के लोग सुसभ्य व सुसंस्कृत क्यों होते हैं? आइए! ज़रा दृष्टिपात करें, इस समस्या के विविध पहलुओं व उसके समाधान पर… हमें जन्म से बेटी-बेटे को समान समझ उनकी परवरिश करनी होगी, क्योंकि बेटे में व्याप्त जन्म- जात श्रेष्ठता व अहमियत का भाव, वास्तव में उसे ऐसे दुष्कर्म व कुकृत्य करने को प्रोत्साहित करता है। इसके निमित्त हमें दोनों के लिए शिक्षा व व्यवसाय के समान अवसर जुटाने होंगे। हां! इसके लिए सबसे अधिक आवश्यकता है… बुज़ुर्गों की सोच बदलने की; जिनके मन में आज भी यह भावना बलवती है कि मृत्यु के समय, पुत्र के हाथों गंगा-जल का आचमन करने से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होगी। परन्तु ऐसा कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। आज कल तो बेटियां भी मुखाग्नि तक देने लगी हैं। प्रश्न उठता है, क्या उनके माता-पिता आजीवन प्रेत-योनि में भटकते रहेंगे और परिवारजनों को आहत करते रहेंगे?

सो! हमें बच्चों के साथ-साथ उनके माता-पिता को भी इन अंधविश्वासों व दक़ियानूसी धारणाओं से मुक्त करना होगा तथा उन्हें इस तथ्य से अवगत कराना होगा कि ‘बेटियां दो-दो कुलों को आलोकित करती हैं…घर को स्वर्ग बनाती हैं।’ हां! यदि कोई बच्चा या युवा गलत राहों पर चल निकलता है, तो उसके लिए ऐसे गुरुकुल व सुधार-गृहों का निर्माण किया जाए; जहां उसे संस्कार व संस्कृति की महत्ता से अवगत कराया जाए तथा उस राह का अनुसरण न करने पर, उसके भीषणतम परिणामों से अवगत करा कर, यह चेतावनी दी जाए कि यदि भविष्य में उसने कोई गलत काम किया, तो कोई भी उसकी रक्षा नहीं कर पाएगा। इन परिस्थितियों में शायद, उसकी सोच में कुछ सुधार आ पाए और समाज में शांत व सुखद वातावरण स्थापित हो सके।

चलिए! हम विवेचना करते हैं– सरकार द्वारा निर्मित कानूनों की…आखिर वे इतने अप्रभावी क्यों हैं? लोग जुर्म करने से पहले उसके भयावह पक्षों पर ध्यान क्यों नहीं देते; उनके बारे में क्यों सोच-विचार अथवा गहन चिंतन-मनन नहीं करते? इसके लिए हमें त्वरित न्याय-प्रणाली को अपनाना होगा और ऐसे शोहदों को सरे-आम दंण्डित करना होगा, ताकि समाज के पथ-भ्रष्ट बाशिंदे उनके हृदय-विदारक अंजाम को देख कर शिक्षा ग्रहण कर सकें…अपने बच्चों पर पूर्ण रूप से अंकुश लगा पाएं…भले ही उन्हें किसी भी सीमा तक दण्डित क्यों न करना पड़े। इसके साथ-साथ आवश्यकता है– स्कूल व कॉलेजों में नैतिक शिक्षा को अनिवार्य विषय के रूप में मान्यता प्रदान करने की, ताकि उनकी दूषित मानसिकता परिवर्तित हो सके; उनकी विकृत मन: स्थिति में बदलाव आ सके और सोच सकारात्मक बन सके।

चंद दिन पहले यह जानकर आश्चर्य हुआ कि पब्लिक स्कूलों के बच्चे ‘फन सेक’ कंडोम तक का प्रयोग करते हैं और बाल्यावस्था के यह असामान्य संबंध, भविष्य में उनके लिए इतना बड़ा संकट उत्पन्न कर सकते हैं…यह गंभीर विषय है। हमें पब्लिक स्कूलों में बढ़ते ऐसे फन पर प्रतिबंध लगाना होगा, क्योंकि ऐसी कारस्तानियां मन को आहत करती हैं और हमारा मीडिया उन्हें भ्रमित कर, किस दिशा की ओर अग्रसर कर रहा है? आप अनुमान नहीं लगा सकते, यह स्थिति समाज व देश के लिए किस क़दर घातक है तथा विस्फोटक स्थिति उत्पन्न कर सकती है। कल्पना कीजिए, क्या होगा…इस देश के बच्चों का भविष्य… क्या वे अपने गंतव्य पर पहुंच देश को समुन्नत बनाने में योगदान दे पाएंगे? शायद नहीं… कभी नहीं।

मैं लौट जाना चाहती हूं, पचपन वर्ष पूर्व के समय में, जब मुझे महाविद्यालय की छात्रा के रूप में, वाद- विवाद प्रतियोगिता में प्रतिभागिता करने का अवसर प्राप्त हुआ; जहां प्राचार्या को अपने महाविद्यालय की छात्राओं को आदेश देते हुए सुना,’पुट योअर दुपट्टा एट योअर प्रो-पर प्लेस’ …सुनकर बहुत विचित्र-सी अनुभूति हुई। परन्तु आज से सोलह वर्ष पूर्व जब मैंने महिला महाविद्यालय का कार्यभार संभाला, तो छात्राओं को टॉइट जींस, शार्ट टॉप पहने व हाथों में मोबाइल थामे देख, मन यह सोचने पर विवश हो गया…’आखिर क्या होगा, हमारे देश का भविष्य? क्या यह लड़कियां भविष्य में दो कुलों को रोशन करने में समर्थ सिद्ध हो पायेंगी…जिनमें शालीनता लेशमात्र को भी नहीं है। क्या इनके ससुराल वाले ‘हैलो-हॉय’ कल्चर पसंद करेंगे? यह जानकर मैं अवाक् रह गयी, जब चंद दिन बाद सी•आई•डी• वालों ने मुझे इस तथ्य से अवगत कराया कि आजकल लड़कियां अक्सर होटलों में दुल्हन की वेशभूषा में सोलह-सिंगार किए अपने ब्वॉयफ़्रेंड के साथ पायी जाती हैं; जिसके प्रमाण देख मेरे पांव तले से ज़मीन खिसक गई और मन उन्हें गलत राह से लौटा लाने को कटिबद्ध हो गया।

तत्पश्चात् मैंने अपने महाविद्यालय में मोबाइल व जीन्स पर प्रतिबंध लगा दिया। मुझे यह बताते हुए अत्यंत दु:ख हो रहा है कि जिन प्राध्यापकों की बेटियां वहां शिक्षा ग्रहण कर रहीं थीं; उन्होंने इसे ग़लत ठहराया और महाविद्यालय में ऐसे नियम न लागू करने की सलाह भी दी। उनकी यह दलील कि साइकिल चलाते हुए, उनकी चुन्नियां उलझ कर रह जाती हैं। बताइए! क्या यह तर्क उचित है? इसी प्रकार मोबाइल की सार्थकता के बारे में कहा गया कि यह आज के समय की ज़रूरत है… वर्तमान की मांग है। इसके माध्यम से उनसे संवाद बना रहता है। परन्तु मैंने यह प्रतिबंध लागू कर दिया और इसकी अनुपालना न करने पर फ़ाइन की व्यवस्था का आदेश भी जारी कर दिया। परंतु उनके द्वारा विरोध करने की नौबत नहीं आई, क्योंकि चंद दिन बाद हरियाणा सरकार ने भी यह प्रतिबंध लागू कर दिया।

मेरा इस घटना को बताने का आशय यह है कि यदि माता-पिता व शिक्षक वर्ग चाहे, तो सब कुछ संभव है, क्योंकि बच्चे उन पर सर्वाधिक विश्वास करते हैं…उन्हें आदर्श मानकर उन जैसा ही बनने का प्रयास करते हैं। वे गीली मिट्टी के समान होते हैं और उन्हें मन-चाहा रूपा-कार प्रदान किया जा सकता है।

सो! सही दशा व दिशा जीवन का आधार है। आइए, हम सब इस यज्ञ में समिधा डाल कर अपने दायित्वों का निर्वहन करें, ताकि ऐसे भीषण हादसों से समाज को निज़ात मिल सके…चहुंओर शांति का साम्राज्य स्थापित हो सके। परिवार व समाज में समन्वय, सामंजस्यता व समरसता का वातावरण हो; संयुक्त परिवार-व्यवस्था में बच्चे स्वयं को सुरक्षित अनुभव करें और उनका सर्वांगीण विकास सम्भव हो सके… यह मेरी ही नहीं, समाज के हर बाशिंदे की इच्छा है, चाहना है। इस संदर्भ में इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया भी अपना भरपूर योगदान दे सकते हैं। इसके लिये सरकार को ऐसी वेबसाइटों पर प्रतिबंध लगाना सुनिश्चित करना होगा, ताकि बच्चों में अपने लक्ष्य के प्रति गंभीरता व एकाग्रता बनी रहे और वे उसे प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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