प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण “गजल”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा # 52 ☆ गजल ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆
हंसी-खुशयों से सजी हुई जिन्दगानी चाहिये।
सबको जो अच्छी लगे ऐसी रवानी चाहिये।
समय के संग बदल जाता सभी कुछ संसार में।
जो न बदले याद को ऐसी निशानी चाहिये।
आत्मनिर्भर हो न जो, वह भी भला क्या जिन्दगी
न किसी का सहारा, न मेहरबानी चाहिये।
हो भले काँटों तथा उल्झन भरी पगडंडियॉ
जो न रोके कहीं वे राहें सुहानी चाहियें।
नजरे हो आकाश पै पर पैर धरती पर रहे
हमेशा हर सोच में यह सावधानी चाहिये।
हर नये दिन नई प्रगति की मन करे नई कामना
निगाहों में किन्तु मर्यादा का पानी चाहिये।
मिल सके नई उड़ानों के जहॉ से सब रास्ते
सद्विचारों की सुखद वह राजधानी चाहिये।
बांटती हो जहां सबको खुशबू अपने प्यार की
भावना को वह महेती रातरानी चाहिये।
हर अॅंधेरी समस्या का हल, सहज जो खोज ले
बुद्धि बिजली को चमक वह आसमानी चाहिये।
नित नये सितारों तक पहुंचाना तो है भला
मन ’विदग्ध’ निराश न हो, और हो समन्वित भावना
देश को जो नई दिशा दे वह जवानी चाहिये।।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी भोपाल ४६२०२३
मो. 9425484452
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈