डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘एक संकटग्रस्त प्रजाति ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – एक संकटग्रस्त प्रजाति ☆
हाल ही में एक सर्वे से यह चौंकाने वाला तथ्य सामने आया कि हमारे देश में ईमानदार लोगों की संख्या, जो आज़ादी के समय करोड़ों में थी, अब जनसंख्या तिगुनी होने के बावजूद घट कर कुछ लाखों में रह गयी है। यह तथ्य सामने आते ही सरकारी स्तर पर बड़ी भागदौड़ शुरू हो गयी। यह चिन्ता व्यक्त की गयी कि अगर यह तथ्य भ्रष्टाचारी देशों की लिस्ट बनाने वाली अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की जानकारी में आ गया तो हमारी फजीहत हो जाएगी।’डिज़ास्टर मैनेजमेंट’ की बातें होने लगीं। ‘समथिंग हैज़ टु बी डन इमीडिएटली। इट इज़ अ सीरियस क्राइसिस ऑफ कैरेक्टर’।
मीटिंग पर मीटिंग होने लगी। तुरन्त कुछ करना होगा, नहीं तो दुनिया के सामने क्या मुँह दिखाएंगे? हमारा देश धर्मप्रधान देश है, फिर सारे ईमानदार कहाँ ग़ायब हो गये?
आला अधिकारी माथा पकड़े बैठे थे। अभी तक बाघों की घटती संख्या को लेकर परेशान थे, अब यह एक और सरदर्द पैदा हो गया।
मीटिंग में तरह तरह के सुझाव आने लगे। एक अधिकारी बोले, ‘सर, मेरी समझ में नहीं आता कि ईमानदारों की तादाद कम होने पर चिन्ता की क्या बात है। अब अर्थव्यवस्था बाज़ार की शक्तियों के हिसाब से चल रही है। आदमी वहीं जाएगा जहाँ चार पैसे मिलेंगे। हमने इतनी तरक्की कर ली है तो इन पुराने खयालों को कब तक छाती से चिपकाये रहेंगे? ईमानदारी इज़ नाउ आउटडेटेड। लेट अस एक्सेप्ट इट।’
बड़े अधिकारी सर खुजाने लगे,बोले, ‘आपका कहना ठीक है, लेकिन दुनिया अभी भी ‘आनेस्टी’ को ‘इंपार्टेंट’ मानती है। हमारे देश में ईमानदार लोगों का एक ‘रिस्पैक्टेबल नंबर’ तो होना ही चाहिए, अन्यथा हो सकता है कि हमको वर्ल्ड बैंक और दूसरी संस्थाओं की मदद मिलना बन्द हो जाए।’
एक बड़े साहब बोले, ‘सबसे पहले तो ईमानदार आदमी को संरक्षित प्राणी घोषित किया जाए और इसकी ‘पोचिंग’ के खिलाफ कानून बनाया जाए।’
इस पर एक अधिकारी ने शंका प्रकट की, ‘पोचिंग तो जानवरों को मारने के लिए इस्तेमाल होता है। आदमी के संबंध में ‘पोचिंग’ का क्या मतलब? ‘
बड़े साहब बोले, ‘पोचिंग ईमानदार की भले न हो, लेकिन ईमानदारी की तो होती है। लोग ईमानदार को बेईमान बना देते हैं। यह भी तो पोचिंग ही है। इसमें दोस्तों, दफ्तर के
साथियों, अफसरों, पत्नी और परिवार का हाथ हो सकता है। ये सब ईमानदारी की पोचिंग के दोषी हो सकते हैं।’
सुनने वाले हँसने लगे,बोले, ‘इनका पता कैसे लगेगा सर? यह तो भूसे के ढेर में सुई तलाशने जैसा हुआ।’
साहब सर खुजाते हुए बोले, ‘काम तो मुश्किल है, लेकिन कानून बन जाएगा तो ईमानदार लोगों को बेईमानी की तरफ धकेलने वालों के मन में कुछ खौफ पैदा हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी एक फैसले में कहा है कि पत्नी अगर पति को रिश्वत लेने के लिए उकसाये तो उसे भी बराबर का दोषी माना जाएगा।’
एक अफसर ने सुझाव दिया, ‘ईमानदारी के लिए कुछ ‘इंसेन्टिव’ होना चाहिए। ईमानदारों को ईमानदारी-भत्ता दिया जाना चाहिए। इससे फर्क पड़ेगा।’
दूसरे साहब भुनभुनाये, ‘ईमानदारी- भत्ता रिश्वत और कमीशन की बराबरी कैसे कर पाएगा? कहाँ लाखों करोड़ों और कहाँ कुछ सैकड़ा या हजार!ऊँट के मुँह में जीरा।’
एक और साहब बोले, ‘मेरे खयाल से ईमानदार लोगों का हर शहर में हर साल नागरिक अभिनन्दन होना चाहिए। इससे वातावरण तैयार होगा।’
दूसरे साहब सुँघनी सूँघते हुए उठे, बोले, ‘इसमें दिक्कत यह है कि ईमानदार लोगों की पहचान कैसे होगी? कहीं ईमानदारों के बीच कुछ बेईमान घुस कर सम्मान करा ले गये तो भारी बदनामी होगी। अभी भी अस्सी प्रतिशत बेईमान अपने को सौ टंच ईमानदार मानते हैं। इसलिए अभिनन्दन समारोह में फर्जी लोगों के घुसने की संभावना बनी रहेगी।’
एक अफसर बोले, ‘मेरा सुझाव है कि बेईमानों को फिर से ईमानदार बनाने का एक अभियान चलाया जाना चाहिए। जैसे एक धर्म को छोड़कर दूसरे धर्म में जाने वालों को पाँव पूजकर वापस लाया जाता है उसी तरह बेईमानों को भी वापस ईमानदारी के बाड़े में लाया जाना चाहिए।’
बड़े अफसर बोले, ‘भाई साहब, अपना धर्म छोड़कर दूसरे धर्म में जाने वाले ज़्यादातर भोले-भाले आदिवासी होते हैं, इसलिए वे समझाने पर वापस आ जाते हैं। लेकिन बेईमान तो खुर्राट होते हैं, उनकी दाढ़ में खून लगा होता है। समझाने बुझाने से उन पर रत्ती भर असर नहीं होगा।’
एक साहब बोले, ‘मेरे खयाल से ईमानदारों के लिए सरकारी नौकरी में कोटा रख दिया जाना चाहिए। इससे ईमानदारी को बढ़ावा मिलेगा।’
बड़े साहब ने जवाब दिया, ‘फिर वही समस्या होगी। बेईमान लोग झूठे प्रमाण-पत्र ला लाकर सब नौकरियाँ हड़प लेंगे और असली ईमानदार टापते रह जाएंगे।’
फिर सन्नाटा छा गया। बड़े साहब बोले, ‘मेरे दिमाग में एक और बात आयी है। हर डिपार्टमेंट को एक टार्गेट दे दिया जाना चाहिए कि वे हर साल कम से कम उतने लोगों को बेईमान से ‘कन्वर्ट’ करके ईमानदारी के बाड़े में लायें, यानी उनका हृदय-परिवर्तन करायें। इसके लिए डिपार्टमेंट के हेड को पुरस्कार की व्यवस्था होनी चाहिए।’
तुरन्त एक छोटे साहब हाथ जोड़कर खड़े हो गये, बोले, ‘सर, ऐसा टार्गेट रखकर हम लोगों की फजीहत मत कराइए। आप जानते हैं कि ईमानदार का बेईमान हो जाना आसान है,लेकिन अनुभवप्राप्त बेईमान को पुनः ईमानदार बनाना वैसे ही कठिन है जैसे टूटे हुए दाँत को फिर से बैठा देना। इस असंभव काम में हाथ मत डालिए, सर। सारे विभागों की बदनामी हो जाएगी।’
फिर मौन छा गया।
एक अफसर जो बड़ी देर से माथे पर बल दिये,आँखें मूँदे बैठे थे, धीरे धीरे उठ खड़े हुए। फिर प्रयत्नपूर्वक अपनी आँखें खोलकर बोले, ‘सर, मैं बड़ी देर से यहाँ चल रही बातें सुन रहा हूँ। सर, मेरा दृढ़ मत है कि इस विषय पर चर्चा करना समय की बर्बादी है। हमारा देश सदियों से महान और सारे संसार का गुरू रहा है। यहाँ से सभ्यता और संस्कृति निकलकर पूरी दुनिया में गयी है। यह बड़े बड़े महापुरुषों और ज्ञानियों का देश है। यहाँ बेईमानी के पनपने की गुंजाइश ही नहीं है। मेरा पक्का विश्वास है कि हमारे देश में एक प्रतिशत भी बेईमानी नहीं है। ये जो आँकड़े छपते हैं, सब हमें बदनाम करने की साज़िश है। यह उन विदेशी ताकतों का षड़यंत्र है जो हमारी प्रगति से परेशान हैं।
‘अतः मेरा तो यह सुझाव है कि जिन लोगों ने हमारे देश में बेईमानी बढ़ने की रिपोर्ट तैयार की है उनके खिलाफ सख्त कार्यवाही की जाए ताकि आगे किसी की हमारे देश को बदनाम करने की हिम्मत न हो।’
बड़े साहब के मुँह पर राहत का भाव आ गया। प्रसन्न होकर बोले, ‘यह सुझाव सही है। मैं तुरन्त रिपोर्ट बनाने वालों पर कार्यवाही की सिफारिश करता हूँ। अब चिन्ता की कोई बात नहीं है।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈