डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “पर्वों पर सांप्रदायिक सद्भावना।)

☆ किसलय की कलम से # 57 ☆

☆ पर्वों पर सांप्रदायिक सद्भावना ☆

पर्वों की सार्थकता तभी है जब उन्हें आपसी सद्भाव, प्रेम-भाईचारे और हँसी-खुशी से मनाया जाए। अपनी संस्कृति, प्रथाओं व परंपराओं की विरासत को अक्षुण्ण रखने के साथ-साथ अगली पीढ़ी के अनुकरणार्थ हम पर्वों को मनाते हैं। ये पर्व धार्मिक, सामाजिक अथवा राष्ट्रीय क्यों न हों, हर पर्व का अपना इतिहास और सकारात्मक उद्देश्य होता है। पर्व कभी भी विद्वेष अथवा अप्रियता हेतु नहीं मनाये जाते। पर्वों के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए परंपरानुसार उन्हें मनाने की रीति चली आ रही है। पहले हमारे भारतवर्ष में हिंदु धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई धर्मावलंबी नहीं थे, तब आज जैसी परिस्थितियाँ कभी निर्मित ही नहीं हुईं। आज जब विभिन्न धर्मावलंबी हमारे देश में निवास करते हैं, तब धर्म हर धर्म के लोग अपनी अपनी रीति रिवाज के अनुसार अपने पर्व सामाजिक स्तर पर मनाते हैं और होना भी यही चाहिए। मानवीय संस्कार सभी को अपने-अपने धर्मानुसार पर्व मनाने की सहज स्वीकृति देते हैं।

कहते हैं कि जहाँ चार बर्तन होते हैं उनका खनकना आम बात है। ठीक इसी प्रकार जब हमारे देश में विभिन्न धर्मावलंबी एक साथ, एक ही सामाजिक व्यवस्थानुसार रहते हैं तो यदा-कदा कुछेक अप्रिय स्थितियों का निर्मित होना स्वाभाविक है। विवाद तब होता है जब मानवीयता से परे, स्वार्थवश, संकीर्णतावश, विद्वेष भावना के चलते कभी अप्रिय स्थितियाँ निर्मित हो जाती हैं। ऐसी परिस्थितियों के लिए मुख्य रूप से कट्टरपंथियों की अहम भूमिका होती है। ये विशेष स्वार्थ के चलते फिजा में जहर घोलकर अपना वर्चस्व व प्रभाव स्थापित करना चाहते हैं। तथाकथित धर्मगुरुओं एवं विघ्नसंतोषियों के बरगलाने पर भोली जनता इनके प्रभाव अथवा दबाव में आकर इनका साथ देती है। ये वही लोग होते हैं जो धर्म स्थलों, धार्मिक जुलूसों अथवा पर्व मना रही भीड़ में घुसकर ऐसी अप्रिय स्थितियाँ निर्मित कर देते हैं, जिससे आम जनता न चाहते हुए भी आक्रोशित होकर इतरधर्मियों पर अपना गुस्सा निकालने लगती है। यही वे हालात होते हैं, जब धन-जन की क्षति के साथ-साथ सद्भावना पर भी विपरीत असर पड़ता है। ये हालात समय के साथ-साथ सामान्य तो हो जाते हैं लेकिन इनका दूरगामी दुष्प्रभाव भी पड़ता है। नवयुवकों में इतरधर्मों के प्रति नफरत का बीजारोपण होता है। ये दिग्भ्रमित नवयुवक भविष्य में समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं। ऐसे लोग देश और समाज के लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकते हैं।

आज जब विश्व में शैक्षिक स्तर गुणोत्तर उठ रहा है। भूमंडलीकरण के चलते सामाजिक, धार्मिक व व्यवसायिक दायरे विस्तृत होते जा रहे हैं। आज धर्म और देश की सीमा लाँघकर अंतरराष्ट्रीय विवाह होने लगे हैं। लोग अपने देश को छोड़कर विभिन्न देशों में उसी देश के प्रति वफादार और समर्पण की मानसिकता से वहीं की नागरिकता ग्रहण कर रहे हैं, बावजूद इसके हम आज भी वहीं अटके हुए हैं और उन्हीं चिरपरिचित स्वार्थी लोगों का समर्थन कर देश को हानि पहुँचाने में एक सहयोगी जैसी भूमिका का निर्वहन करते हैं।

आज हमें बुद्धि एवं विवेक से वर्तमान की परिस्थितियों पर पुनर्विचार करना पड़ेगा। हमें स्वयं व अपने देश के विकास पर ध्यान केंद्रित करना होगा। मानव की प्रकृति होती है कि वह सबसे पहले अपना और स्वजनों का भला करें, जिसे पूर्ण करने में लोगों का जीवन भी कम पड़ जाता है। तब आज किसके पास इतना समय है कि वह समाज, धर्म, देश व आपसी विद्वेष के बारे में सोचे। ऐसे कुछ ही प्रतिशत लोग हैं जिन्हें न अपनी, और न ही देश की चिंता रहती है। पराई रोटी के टुकड़ों पर पलने वाले और तथाकथित आकाओं-संगठनों के पैसों से ऐशोआराम करने वाले ही आज समाज के विरोध में खड़े दिखाई देते हैं।

आप स्वयं चिंतन-मनन कर पाएँगे कि वर्तमान की परिस्थितियाँ सामाजिक विघटन तथा अलगाव की बिल्कुल भी अनुमति नहीं देती। आज की दिनचर्या भी इतनी व्यस्त और एकाकी होती जा रही है कि मानव को दीगर बातें सोचने का अवसर ही नहीं मिलता। तब जाकर यह बात सामने आती है कि आखिर इन परिस्थितियों का निराकरण कैसे किया जाये।

एक साधारण इंसान भी यदि निर्विकार होकर सोचे तो उसे भी इसका समाधान मिल सकता है। हमें बस कुछ बातों का ध्यान रखना होगा। हम एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के नागरिक हैं। यहाँ सबको अपने धर्म और मजहब के अनुसार जीने का हक है। जब तक इतरधर्मी शांतिपूर्ण ढंग से, अपनी परंपरानुसार पर्व मनाते हैं, हमें उनके प्रति आदर तथा सद्भाव बनाये रखना है। पर्वों के चलते जानबूझकर नफरत फैलाने का प्रयास कदापि नहीं करना है। इतरधर्मियों, इतर धार्मिक पूजाघरों के समक्ष जोश, उत्तेजना व अहंकारी बातों से बचना होगा। सभी धर्मों के लोग भी इन परिस्थितियों में सद्भाव बनाए रखें तथा सहयोग देने से न कतरायें। धर्म का हवाला देकर दूरी बनाना किसी भी धर्म में नहीं लिखा है। यह सब धर्मगुरुओं के नियम-कानून और स्वार्थ हो सकते हैं। ईश्वर ने सबको जन्म दिया है, वह सब का भला चाहता है। तब उसके व्यवहार में अंतर कैसे हो सकता है। शासन-प्रशासन, धर्म-गुरु और सामान्य लोग सभी मिलजुल कर सारे समाज का स्वरूप बदलने में सक्षम हैं। बस सकारात्मक और अच्छे नजरिए की जरूरत है। यह सकारात्मक नजरिया लोगों में कब देखने मिलेगा हमें इंतजार रहेगा। बात बहुत बड़ी है, लेकिन कहा जाता है कि आशा से आसमान टिका है तब हमें इस आशा को विश्वास में बदलने हेतु कुछ प्रयास आज से ही शुरु नहीं करना चाहिए? बस एक बार सोचिए तो सही। आप खुद ब खुद चल पड़ेंगे सद्भावना की डगर, जहां इंसानियत और सद्भावना का बोलबाला होगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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विजय तिवारी " किसलय "

आलेख प्रकाशन हेतु आभार अग्रज।
– किसलय