डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘इश्क की दुश्वारियाँ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 112 ☆

☆ व्यंग्य – इश्क की दुश्वारियाँ

कुछ दिन पहले भोपाल के दो मुख़्तलिफ़ धर्मों के लड़के-लड़की ने शादी कर ली और शहर में भूचाल आ गया।  ‘पकड़ो, पकड़ो,जाने न पाये’ शुरू हो गया और प्रेमी जोड़ा अपनी जान लेकर वैसे ही भागने लगा जैसे जंगल में हाँका होने पर जानवर जान बचाते भागते हैं। इत्ता बड़ा मुल्क होने पर भी प्रेमियों को बचने का ठौर ढू्ँढ़ना मुश्किल हो जाता है क्योंकि धर्म और बिरादरी के हाथ कानून के हाथों से भी ज़्यादा लम्बे होते हैं। मिर्ज़ा ग़ालिब ने इश्क को ‘आग का दरया’ बतलाया था जिसमें से डूब कर जाना होता है। भोपाल के इस प्रेमी जोड़े की दुर्गति देखकर लगता है कि मिर्ज़ा साहब ने बिलकुल दुरुस्त फरमाया था।

हम भले ही लैला-मजनूँ, हीर-राँझा या सोहनी-महिवाल के गीत झूम झूम कर गाते हों,लेकिन जब आज के ज़माने में कोई हीर- राँझा पैदा हो जाते हैं तो ज़माना लट्ठ लेकर उनके पीछे पड़ जाता है। हीर-राँझा और सोहनी-महिवाल कहानियों और गीतों में ही भले। अच्छा ही हुआ कि ये महान प्रेमी जोड़े आज के ज़माने में पैदा नहीं हुए,वर्ना फजीहत को प्राप्त होते।

बाबा बुल्लेशाह की वाणी भी बड़ी सुहानी लगती है—‘बेशक मन्दिर मस्जिद तोड़ो,पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो।’ लेकिन होता यह है कि मन्दिर-मस्जिद को महफूज़ रखने के लिए प्यार भरे दिल ही नहीं, प्रेमियों के सर भी तोड़े जा रहे हैं।

दरअसल झगड़े की जड़ यह है कि ऊपर वाले ने विवाह, बिरादरी, जाति, धर्म का कंट्रोल तो मनुष्य के हाथ में सौंप दिया, लेकिन इश्क की चाबी अपने पास रख ली। इसीलिए कहा जाता है कि इश्क किया नहीं जाता, हो जाता है। इश्क इसलिए हो जाता है कि आदमी पर जाति, धर्म का ठप्पा धरती पर पैदा होने के बाद ही लगता है, ऊपर से वह सिर्फ इंसान के रूप में आता है। जब ऊपर वाले ने कोई फर्क नहीं किया तो इंसान कोई बैरियर क्यों लगाये?इश्क के रेले में सब बाँध बह जाते हैं।

अगर इश्क का कंट्रोल भी ऊपर से ट्रांसफर होकर बिरादरी के हाथ में आ जाए तो सारी खटखट ख़त्म हो जाएगी। फिर लड़की बिरादरी वालों से परमीशन माँगेगी—‘भाई जी, मुझे एक दूसरे धरम वाला लड़का अच्छा लगता है। आप परमीशन दें तो उससे प्यार कर लूँ।’ बिरादरी सिर हिलाकर कहेगी, ‘ना सोणिए, परमीशन नहीं मिलेगी। तू दूसरे धरम वाले से प्यार करेगी तो पूरी बिरादरी की नाक कट जाएगी। इस इश्क की अब्भी गर्दन मरोड़ दे।’और लड़की एक आदर्श कन्या की तरह,मन में अँखुआ रहे प्रेम को उखाड़ फेंकेगी। जब लड़का मिलेगा तो उससे कहेगी, ‘सॉरी डियर, बिरादरी से परमीशन नहीं मिली। मुझे भूल जाओ और इश्क के लिए कोई बिरादरी की लड़की ढूँढ़ लो।’
एक दलित लेखक को एक ऐसी ही समझदार कन्या मिली थी। वह उनको उच्च जाति का समझ कर उनसे प्यार करने लगी थी, लेकिन जब लेखक ने उसे अपनी जाति बतायी तो उसका प्रेम-प्रवाह अवरुद्ध हो गया। वह काफी रोयी धोयी, लेकिन प्रेम को आगे बढ़ाने की नासमझी नहीं की।   जाति की दीवार से टकराकर प्रेम का कचूमर निकल गया। ऐसी ही समझदार और आज्ञाकारी लड़कियों और ऐसे ही लड़कों के बूते बिरादरी की नाक सलामत रहती है।

यही हाल रहा तो एक दिन कोई लड़की लड़के से कहेगी, ‘मेरे दिल में तुम्हें देखकर प्यार के वलवले उठ रहे हैं। काश तुम मेरी बिरादरी के होते।’ ऐसे ही कोई लड़का आह भरकर लड़की से कहेगा, ‘भगवान से मनाता हूँ कि अगले जनम में मुझे तुम्हारी बिरादरी में पैदा करें। तभी हमारा तुम्हारा मिलन हो पाएगा।’

बिरादरी के नज़रिये से अच्छे बेटे बेटियों को इश्क विश्क में पड़ने का काम शादी के बाद ही करना चाहिए, यानी सिर्फ अपनी बीवी या शौहर के साथ। बहुत से आदर्श पति अपनी बीवी पर कुर्बान होते हैं। और अगर बीवी से इश्क नहीं भी हो सका तो क्या हर्ज़ है?सन्तानोत्पादन का दुनियावी काम तो चलता ही रहेगा। उसके लिए इश्क ज़रूरी नहीं है। मेरे शहर के एक कवि ने इश्क और हुस्न की क्षणभंगुरता का बयान करते हुए लिखा था—‘इश्क फसली बुखार है प्यारे, हुस्न मच्छर की मार है प्यारे।’

लेकिन बिरादरी के ये लम्बे हाथ सिर्फ सामान्य लोगों तक ही पहुँचते हैं। ऊँचे तबके के लोगों तक पहुँचने में ये हाथ छोटे पड़ जाते हैं और विरोध के स्वर ठंडे पड़ जाते हैं क्योंकि उस तबके के लोगों में बिरादरी को ठेंगा दिखाने की ताकत होती है। फिल्म नगरी मुख़्तलिफ़ धर्म वालों की शादियों से पटी पड़ी है, लेकिन उनके ख़िलाफ़ कोई आवाज़ नहीं उठती क्योंकि वहाँ बिरादरी वालों की गुज़र नहीं है।

प्रसिद्ध कथाकार ओ. हेनरी की एक कहानी है जिसमें दो प्रेमी दो तरफ खड़े, अपनी प्रेमिका को प्रभावित करने के लिए अपनी अपनी संपत्ति का बखान करते हैं। प्रेमिका दोनों के बीच खड़ी है और जैसे ही कोई प्रेमी अपनी संपत्ति का ब्यौरा देता है, वह दौड़ कर उसके गले से लग जाती है। वह ऐसे ही दोनों प्रेमियों के बीच दौड़ती रहती है। ऐसी कन्याएँ बिरादरी के हिसाब से आदर्श होती हैं क्योंकि वे नाप-तौल कर निर्णय लेती हैं, जज़्बातों में नहीं बहतीं।

वैश्वीकरण के इस युग में शादियों में जाति धर्म के बंधन लगना अटपटा लगता है। एक तरफ तो भारतीय युवक युवतियाँ पूरी दुनिया में उड़ते फिर रहे हैं, दूसरी तरफ जाति धर्म के नाम पर उनके पर कतरे जा रहे हैं। इस खींचतान में भारतीय युवा की गाड़ी किस सदी में पनाह लेती है यह देखने की बात है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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