श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “आरामगाह की खोज”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 77 – आरामगाह की खोज ☆
दौड़भाग करके मनमौजी लाल ने एक कार्यक्रम तैयार किया किन्तु बात खर्चे पर अटक गयी । संयोजक, आयोजक, प्रतिभागी सभी तैयार थे, बस प्रायोजक को ढूंढना था। क्या किया जाए अर्थव्यवस्था चीज ही ऐसी है, जिसके इर्द गिर्द पूरी दुनिया चारो धाम कर लेती है । बड़ी मशक्कत के बाद गुनीलाल जी तैयार हुए ,बस फिर क्या था उन्होंने सारी योजना अपने हाथों में ले ली अब तो सबके रोल फीके नजर आने लगे उन्हें मालुम था कि जैसा मैं चाहूँगा वैसा करना पड़ेगा ।
दूसरी तरफ लोगों ने समझाया कि कुछ लोग मिलकर इसके प्रायोजक बनें तभी कार्यक्रम का उद्देश्य पूरा हो सकेगा । सो यह निर्णय हुआ कि साझा आर्थिक अभियान ही चलायेंगे । कार्य ने गति पकड़ी ही थी कि दो दोस्तों की लड़ाई हो गयी, पहले ने दूसरे को खूब भला बुरा कहा व आसपास उपस्थित अन्य लोगों के नाम लेकर भी कहने लगा मेरा ये दोस्त मन का काला है, आप लोगों की हमेशा ही बुराई करता रहता है , मैंने इसके लिए कितना पैसा और समय खर्च किया पर ये तो अहसान फरामोश है इसे केवल स्वयं के हित के अलावा कुछ सूझता नहीं ।
वहाँ उपस्थित लोगों ने शांति कराने के उद्देश्य से ज्ञान बघारना शुरू कर दिया जिससे पहले दोस्त को बड़ा गुस्सा आया उसने कहा आप लोग पत्थर के बनें हैं क्या ? मैंने इतना कहा पर आप सबके कानों में जूँ तक नहीं रेंगी, खासकर मैडम जी तो बिल्कुल अनजान बन रहीं इनको कोई फर्क ही नहीं पड़ा जबकि सबसे ज्यादा दोषारोपण तो इनके ऊपर ही किया गया ।
मैडम जी ने मुस्कुराते हुए कहा मैं अपने कार्यों का मूल्यांकन स्वयं करती हूँ, आपकी तरह नहीं किसी ने कह दिया कौआ कान ले गया तो कौआ के पीछे भागने लगे उसे अपशब्द कहते हुए, अरे भई देख भी तो लीजिए कि आपके कान ले गया या किसी और के ।
समझदारी इस बात में नहीं है कि दूसरे ये तय करें कि हम क्या कर रहें हैं या करेंगे बल्कि इस बात में है कि हम वही करें जिससे मानवता का कल्याण हो । योजनाबद्ध होकर नेक कार्य करते रहें ,देर- सवेर ही सही कार्यों का फल मिलता अवश्य है ।
आर्थिक मुद्दे से होती हुई परेशानी अब भावनाओं तक जा पहुँची थी बस आनन फानन में दो गुट तेयार हो गए । शक्ति का बटवारा सदैव से ही कटुता को जन्म देता आया है सो सारे लोग गुटबाजी का शिकार होकर अपने लक्ष्य से भटकते हुए पुनः आरामगाह की खोज में देखे जा रहे हैं।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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