श्री राकेश कुमार
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 55 ☆ देश-परदेश – अटरम शटरम ☆ श्री राकेश कुमार ☆
आज एक मित्र के साथ जयपुर स्थित सी स्कीम क्षेत्र में एक कार्यालय जाना हुआ। वहां कुछ समय फ्री था, तो पास के मार्ग में सुनहरी धूप का स्वाद लेते हुए एक घर के बाहर लगे साइन बोर्ड पर दृष्टि पड़ी, तो मोबाइल से उसकी फोटो लेकर आप को साझा करने का विचार आता, इससे पूर्व उस घर से एक युवक बाहर आकर हमें अंदर ले जाकर पूछने लगा आप सरकारी विभाग से हैं क्या, हमारी छोटी सी दुकान है।
हमने उससे कहा आपकी दुकान का नाम कुछ अटपटा लगा इसलिए फोटो खींच ली है। उसको लगा अब उसको बोर्ड लगाने का सरकारी शुल्क देना पड़ेगा।
विस्तार से उससे चर्चा हुई कि ये नाम क्यों रखा गया है? उसने बताया की उनके पास खाने पीने का सामान और भेंट (गिफ्ट) में दिए जाने वाली वस्तुएं हैं, जो कि बाज़ार में उपलब्ध सामान से हटकर/ अलग प्रकार की हैं। दूसरों से अलग (different) हैं। आज प्रत्येक व्यक्ति सब से अलग करने की मानसिकता में विश्वास करने लगा है।
हमें भी याद आ गया जब युवावस्था में बाज़ार से चाट/ पकोड़ी या समोसा इत्यादि खाकर घर में अम्माजी को भोजन की मनाही करते थे, वे कहा करती थी, बाज़ार का “अटरम शटरम” मत खाया करो, नियमित भोजन करना चाहिए।
स्वास्थ्य की दृष्टि से उनका कथन शत-प्रतिशत उचित होता था, परंतु हम तो अपनी जिह्वा के वश में होश खो कर बाज़ार का सामान चट कर जाते थे।
हमारे साथ चल रहे मित्र, हंसते हुए बोले की तुम भी तो कुछ भी देखकर “अटरम शटरम” लिख कर व्हाट्स ऐप में साझा कर देते हो।
© श्री राकेश कुमार
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