डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘शोभा बढ़ाने का मामला’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 114 ☆

☆ व्यंग्य – शोभा बढ़ाने का मामला 

वे मेरे एक मित्र वर्मा जी को पकड़ कर मेरे घर आये थे। पूरे दाँत दिखाकर बोले, ‘स्कूल खोल रहा हूँ। अगले महीने की बीस तारीख को उद्घाटन है। वर्मा जी ने चीफ गेस्ट के लिए आपका नाम सुझाया। कहा आप बड़े आदमी हैं, बहुत बड़े कॉलेज के प्रिंसिपल हैं। आपसे बेहतर आदमी इस काम के लिए नहीं मिलेगा। बस जी,आपकी सेवा में हाज़िर हो गया।’

मैंने पूछा, ‘स्कूल खोलने की बात आपके मन में कैसे आयी?’

वे बोले, ‘बस जी, ऐसे ही। कोई धंधा तो करना ही था। बिना धंधे के कैसे चलेगा?’

मैंने पूछा, ‘पहले क्या धंधा करते थे आप?’

वे बोले, ‘अपना पोल्ट्री का धंधा है जी। उसे बन्द करना है।’

मैंने पूछा, ‘क्यों?’

वे बोले, ‘उस धंधे में बरक्कत नहीं है। चौबीस घंटे की परेशानी है जी। कोई बीमारी लग जाए तो पूरी पोल्ट्री साफ हो जाती है। फिर नौकर भी बड़े बेईमान हो गये हैं। नजर चूकते ही दो चार मुर्गी-अंडे गायब हो जाते हैं। कहाँ तक चौकीदारी करें जी?मन बड़ा दुखी रहता है।’

मैंने पूछा, ‘तो फिर स्कूल खोलने की क्यों सोची?’

वे बोले, ‘अच्छा धंधा है जी। लागत कम है,मुनाफा अच्छा है। चार पाँच हजार रुपये महीने में पढ़ाने वाले मास्टर मिल जाते हैं। आजकल तो मजदूर भी दो तीन सौ रुपये रोज से कम नहीं लेता। पढ़े लिखे लोग सस्ते मिल जाते हैं,बेपढ़े लिखे लोग मँहगे पड़ते हैं।

‘इसके अलावा इस धंधे में ड्रेस और किताबों पर कमीशन भी अच्छा मिल जाएगा। बहुत रास्ते खुल जाएंगे।’

मैंने उनसे पूछा, ‘आप कितना पढ़े हैं?’

वे दाँत निकालकर बोले, ‘इंटर फेल हूँ जी। लेकिन धंधे की टेकनीक खूब जानता हूँ। स्कूल बढ़िया चलेगा। डिपार्टमेंट वालों से रसूख बना लिये हैं। आगे कोई परेशानी नहीं होगी।’

मैंने उनसे पूछा, ‘मंजूरी मिल गयी?’

वे बोले, ‘हाँ जी। वो काम तो आजकल रातोंरात हो जाता है। इंस्पेक्शन रिपोर्ट डिपार्टमेंट में ही बन जाती है। सब काम हो जाता है। वो कोई प्राब्लम नहीं है।’

उन्होंने विदा ली। चलते वक्त हाथ जोड़कर बोले, ‘हमें अपना कीमती वक्त जरूर दीजिएगा जी। आपसे हमारे प्रोग्राम की शोभा है।’

मैंने ‘निश्चिंत रहें’ कह कर उन्हें आश्वस्त किया।

उनका नाम पी.एल. सन्त था। आठ दस दिन बाद सन्त जी का फोन आया कि उद्घाटन कार्यक्रम टल गया है, अगली तारीख वे जल्दी बताएंगे। वे अपने मुर्गीख़ाने को स्कूल में बदलना चाहते थे, उसमें कुछ देर लग रही थी। उनकी नज़र में मुर्गियों और आदमी के बच्चों में कोई ख़ास फर्क नहीं था। बस मुर्गियों की जगह बच्चों को भर देना था। मुर्गियों के साधारण अंडे की जगह अब बच्चे सोने के अंडे देने वाले थे।

इस तैयारी में करीब डेढ़ महीना निकल गया और इस बीच मैं रिटायर होकर घर बैठ गया। फिर एक दिन सन्त जी का फोन आया कि मामला एकदम फिटफाट हो गया है और अगली बारह तारीख को मुझे चीफ गेस्ट के रूप में पधार कर प्रोग्राम की शोभा बढ़ानी है। मैंने सहमति ज़ाहिर कर दी।

आठ दस दिन बाद वे घर आ गये। बड़े उत्साह में थे। वर्मा जी साथ थे। सन्त जी उमंग में बोले, ‘बस सर, सब फिट हो गया। अब आपको शोभा बढ़ानी है। लो कार्ड देख लो। बढ़िया छपा है।’

उन्होंने बाइज्ज़त कार्ड मुझे भेंट किया। देकर बोले, ‘हमने अपने इलाके के एमएलए साहब को प्रोग्राम का अध्यक्ष बना दिया है। आप जानते ही हैं कि आजकल पॉलिटीशन को खुश किये बिना काम नहीं चलता। आप ठहरे एजुकेशन वाले, इसलिए बैलेंस के लिए पॉलिटिक्स वाले आदमी को शामिल कर लिया। आप से तो प्रोग्राम की शोभा बढ़नी है, लेकिन आगे वे ही काम आएंगे।’

मैंने कार्ड देखकर कहा, ‘कार्ड तो बढ़िया छपा है, लेकिन मेरे बारे में कुछ करेक्शन ज़रूरी है।’

सन्त जी अपनी उमंग में ब्रेक लगाकर बोले, ‘क्या हुआ जी? कुछ प्रिंटिंग की मिसटेक हो गयी क्या?  आपके नाम के आगे डॉक्टर तो लगाया है।’

मैंने कहा, ‘मेरे नाम के नीचे जो ‘प्राचार्य’ शब्द छपा है उससे पहले ‘रिटायर्ड’ लगाना ज़रूरी है।’

सन्त जी जैसे आसमान से गिरे, बोले, ‘क्या मतलब जी?’

मैंने कहा, ‘मैं पिछली तीस तारीख को रिटायर हो गया हूँ, इसलिए सही जानकारी के लिए ‘रिटायर्ड’ शब्द लगाना ज़रूरी है।’

सन्त जी का चेहरा उतर गया। उनका उत्साह ग़ायब हो गया। शिकायत के स्वर में बोले, ‘आपने पहले नहीं बताया।’

मैंने कहा, ‘क्या फर्क पड़ता है?’

वे दुखी स्वर में बोले, ‘ज़मीन आसमान का फर्क होता है जी। कुर्सी पर बैठे आदमी में पावर होता है, रिटायर्ड आदमी के पास क्या होता है?’

वर्मा जी ने बात सँभालने की कोशिश की, बोले, ‘कोई फर्क नहीं पड़ता। डॉक्टर साहब शहर के माने हुए विद्वान हैं। पूरा शहर इन्हें जानता है।’

सन्त जी आहत स्वर में बोले, ‘ज़रूर विद्वान होंगे जी, हम कहाँ इनकार करते हैं, लेकिन पावर की बात और है। ये तो दुखी करने वाली बात हो गयी जी।’

वे थोड़ी देर सिर लटकाये बैठे रहे, फिर बोले, ‘ठीक है जी। अब जो हुआ सो हुआ, लेकिन हम तो आपको प्रिंसिपल ही बना कर रखेंगे। हम कार्ड में कुछ नहीं जोड़ेंगे, न अपनी तरफ से प्रोग्राम में आपको रिटायर्ड बतलाएंगे। हमारी इज़्ज़त का सवाल है। आपको अपनी तकरीर में बताना हो तो बता देना। हम तो बारह तारीख तक आपको रिटायर नहीं होने देंगे।’

फिर मज़ाक के स्वर में बोले, ‘आपने कुर्सी क्यों छोड़ दी जी? हमारी खातिर बारह तारीख तक कुर्सी पर बैठे रहते।’

मैंने अपराधी भाव से कहा, ‘अपने हाथ में कहाँ है? जिस तारीख को उम्र पूरी हुई, उस दिन रिटायर होना पड़ता है।’

सन्त जी दाँत चमकाकर बोले, ‘यूँ तो मौत का दिन भी फिक्स्ड होता है, लेकिन आदमी चवनप्राश वगैरः खाकर महूरत टालने की कोशिश में लगा रहता है।’

मैं उनके सटीक जवाब पर निरुत्तर हो गया।

वे चलने के लिए उठे। चलते चलते बोले, ‘आपकी शान के खिलाफ कुछ बोल गया हूँ तो माफ कीजिएगा। दरअसल आपने ऐसी खबर दे दी कि जी दुखी हो गया। जो होता है भले के लिए होता है। प्रोग्राम में ज़रूर पधारिएगा। आपसे ही शोभा है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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