श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 115 ☆ तमसो मा ज्योतिर्गमय 

अंधकार से प्रकाश की यात्रा मनुष्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य है। स्थूल के भीतर सूक्ष्म का प्रकाश है जो मनुष्य को यात्रा कराता है। यह यात्रा बाहर से भीतर की है। कभी-कभी कोई प्रसंग, कोई घटना अकस्मात एक लौ भीतर प्रज्ज्वलित कर देती है। यात्रा आरम्भ हो जाती है।

ब्रह्मा के मानसपुत्र प्रचेता के पुत्र थे रत्नाकर। किंवदंती है कि बचपन में इनका अपहरण एक भीलनी ने कर लिया था। कालांतर में परिवेश के प्रभाव में वे रत्नाकर डाकू हो गए। रत्नाकर डाकू वन में आते- जाते व्यक्तियों को लूट लेने के लिए कुख्यात हो चला। एक बार देवर्षि नारद उस मार्ग से निकले। रत्नाकर रास्ता रोककर खड़ा हो गया। देवर्षि ने पूछा, “यह पापकर्म क्यों करते हो?” उत्तर मिला, “अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए।” देवर्षि ने फिर प्रश्न किया, “तुम्हारे पाप में क्या तुम्हारे परिजन भागीदार होंगे?” ” निश्चित, उन्हीं के लिए तो करता हूँ।”….देवर्षि हँस पड़े। बोले,” चाहे तो मुझे बांध जाओ पर जाकर एक बार अपने परिजनों को पूछ तो लो, उनसे पुष्टि तो ले लो।” नादान रत्नाकर एक मोटी रस्सी से देवर्षि को बांधकर घर पहुँचा। सारा घटनाक्रम सुनाकर परिजनों से पूछा कि उसके पाप में वे सम्मिलित हैं या नहीं?” परिजन बोले, ” हम तुम्हारे पाप में भागीदार क्यों समझे जाएँगे? पाप तुम्हारा, दंड भी तुम्हारा ही।” बैरागी भाव लेकर रत्नाकर, देवर्षि के पास पहुँचा। पापों से मुक्त होने और अंधकार से प्रकाश की यात्रा का मार्ग जानना चाहा। मुनि ने कहा, “तपस्या करो। संभव है। सीधे राम राम तुमसे न जाय तो मरा-मरा से आरम्भ करो।” डाकू रत्नाकर पहला व्यक्ति हुआ जो मरा- मरा, से मराम-मराम होते-होते राम राम तक पहुँचा। प्रदीर्घ तपस्या में शरीर पर दीमकों ने बाँबी बना ली। रत्नाकर, उसी बाँबी में समाप्त हो गए और महर्षि वाल्मीकि ने जन्म लिया।

अज्ञान के तम की जानकारी प्रकाश की यात्रा में पहला चरण है।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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