डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़िंदगी और ज़िंदगी। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 110 ☆
☆ ज़िंदगी और ज़िंदगी ☆
कुछ लोग ज़िंदगी होते हैं, कुछ लोग ज़िंदगी में होते हैं; कुछ लोगों से ज़िंदगी होती है और कुछ लोग होते हैं, तो ज़िंदगी होती है। वास्तव में ज़िंदगी निरंतर चलने का नाम है और रास्ते में चंद लोग हमें ऐसे मिलते हैं, जिनकी जीवन में अहमियत होती है। उनके बिना हम ज़िंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकते और कुछ लोगों के ज़िंदगी में होने से हमें अंतर नहीं पड़ता अर्थात् उनके न रहने से भी हमारा जीवन सामान्य रूप से चलता रहता है। ऐसे लोग बरसाती मेंढक की तरह होते हैं, जिन्हें हम अवसरवादी कह सकते हैं। ये स्वार्थ के कारण हमारा साथ देते हैं। सो! ऐसे लोगों से मानव को सावधान रहना चाहिए। सच्चे दोस्त वे होते हैं, जो सुख-दु:ख में हमारे अंग-संग रहते हैं और सदैव हमारे हितैषी होते हैं। वे हमारी अनुपस्थिति में भी हमारे पक्षधर होते हैं। वास्तव में उनके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते, क्योंकि वे हर विषम परिस्थिति व आपदा में वे हमारा साथ निभाते हैं।
जीवन एक यात्रा है। इसे ज़बरदस्ती नहीं; ज़बरदस्त तरीके से जीएं। मानव जीवन अनमोल है तथा चौरासी लाख योनियों के पश्चात् प्राप्त होता है। इसलिए हमें जीवन में कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए, बल्कि इसे उत्सव समझना चाहिए और असामान्य परिस्थितियों में भी आशा का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। मुझे स्मरण हो रही हैं अब्दुल कलाम की पंक्तियां– ‘आप अपना भविष्य नहीं बदल सकते, परंतु अपनी आदतों में परिवर्तन कर सकते हैं; जिससे आपका भविष्य स्वतः बदल सकता है।’ भले ही हम अपनी नियति नहीं बदल सकते, परंतु अपनी आदतों में परिवर्तन कर सकते हैं और यह हमारी सोच पर निर्भर करता है। यदि हमारी सोच सकारात्मक होगी, तो हमें गिलास आधा खाली नहीं; आधा भरा हुआ दिखाई पड़ेगा, जिसे देख हम संतोष करेंगे और अवसाद रूपी शिकंजे से सदैव बचे रहेंगे।
हर समस्या का समाधान होता है–आवश्यकता होती है आत्मविश्वास व धैर्य की। यदि हम निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं और बीच राह से लौटने से परहेज़ करते हैं, तो हमें सफलता अवश्य प्राप्त होती है। मन का संकल्प व शरीर का पराक्रम यदि किसी कार्य में लगा दिया जाए, तो असफल होने का प्रश्न ही नहीं उठता। हर समस्या के समाधान के केवल दो ही रास्ते नहीं होते हैं। हमें तीसरे विकल्प की ओर ध्यान देना चाहिए तथा तथा उस दिशा में अग्रसर होना चाहिए। ऐसी सीख हमें शास्त्राध्ययन, गुरुजन व सच्चे दोस्तों से प्राप्त हो सकती है।
संसार में जिसने दूसरों की खुशी में ख़ुद की खुशी सीखने का हुनर सीख लिया, वह कभी भी दु:खी नहीं हो सकता। बहुत ही आसान है/ ज़मीन पर मकान बना लेना/ दिल में जगह बनाने में/ ज़िंदगी गुज़र जाती है। सो! चंचल मन पर अंकुश लगाना आवश्यक है। यह पल भर में तीन लोकों की यात्रा कर लौट आता है। यदि इच्छाएं कभी पूरी नहीं होती, तो क्रोध बढ़ता है; यदि पूरी होती हैं, तो लोभ बढ़ता है। इसलिए हमें हर परिस्थिति में सम रहना है और सुख-दु:ख के ऊपर उठना है। इसके लिए आवश्यकता है– मौन रहने और अवसरानुकूल सार्थक वचन बोलने की। मानव को तभी बोलना चाहिए, यदि उसके शब्द मौन पर बेहतर हैं। जितना समय आप मौन रहते हैं; आपकी इच्छाएं शांत रहती हैं और आप राग-द्वेष व स्व-पर के भाव से मुक्त रहते हैं। जब तक मानव एकांत व शून्य में रहता है; उसकी आध्यात्मिक उन्नति होती है और वह अलौकिक आनंद की अनुभूति करता है।
परमात्मा सदैव हमारे मन में निवास करता है। ‘तलाश ना कर मुझे/ ज़मीन और आसमान की ग़र्दिशों में/ अगर तेरे दिल में नहीं/ तो मैं कहीं भी नहीं।’ आत्मा व परमात्मा का संबंध शाश्वत् है। वह घट-घट वासी है तथा उसे कहीं भी खोजने की आवश्यकता नहीं; अन्यथा हमारी दशा उस मृग की भांति हो जाएगी, जो जल की तलाश में भटकते हुए अपने प्राणों का त्याग कर देता है। ‘कस्तूरी कुंडली बसे/ मृग ढूंढे बन माहिं/ ऐसे घट-घट राम हैं/ दुनिया देखे नाहिं।’ सो! मानव को मंदिर-मस्जिद में जाने की आवश्यकता नहीं।
परमात्मा तक पहुंचने के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा हमारा अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव है; जो हमें सब से अलग कर देता है। इसलिए कहा जाता है कि जो अपनों के बिना बीती वह उम्र और जो अपनों के साथ बीती वह ज़िंदगी। सो!अहंकार प्रदर्शित कर रिश्तों को तोड़ने से अच्छा है, क्षमा मांगकर रिश्तों को निभाना। संसार में अच्छे लोग बड़ी कठिनाई से मिलते हैं, उन्हें छोड़ना नहीं चाहिए। प्रकृति का नियम है–जैसे कर्म आप करते हैं, वही लौटकर आपके पास आते हैं। इसलिए सदैव निष्काम भाव से सत्कर्म कीजिए और किसी के बारे में बुरा भी मत सोचिए, क्योंकि समय से पहले और भाग्य से अधिक इंसान को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। इसलिए अपनी ख़ुदी को ख़ुदा की रज़ा में मिला दीजिए; तुम्हारा ही नहीं, सबका मंगल ही मंगल होगा।
© डा. मुक्ता
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