हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 17 ☆ औरत धूर्त और खतरनाक नहीं – एंजेलीना ☆ – डॉ. मुक्ता
डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “औरत धूर्त और खतरनाक नहीं – एंजेलीना”. डॉ . मुक्ता जी ने इस आलेख के माध्यम से यू• एन• एच• सी• आर• की गुडविल एंबेसेडर हॉलीवुड अभिनेत्री एंजेलीना के कथन को व्यापक विस्तार दिया है और नारी के सम्मान एवं अधिकारों के प्रति समाज में सजगता का सन्देश दिया है. साथ ही वे कदापि नहीं मानती कि पुरुषों एवं बच्चों के खिलाफ अपराध को किसी भी तौर से कमतर आँका जाये. उन्होंने इस विषय पर अपनी बेबाक राय रखी है। अब आप स्वयं पढ़ कर आत्म मंथन करें कि – हम इस दिशा में क्या कर सकते हैं? आदरणीया डॉ मुक्ता जी का आभार एवं उनकी कलम को इस पहल के लिए नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 17 ☆
☆ औरत धूर्त और खतरनाक नहीं – एंजेलीना ☆
हॉलीवुड की अभिनेत्री एंजेलीना का यह कथन समाज के तथाकथित सफेदपोश लोगों को कटघरे में खड़ा कर देता है, जो अपने अधिकार छीने जाने पर आवाज़ दबाने को तैयार नहीं. वे ऐसी महिलाओं के पक्षधर नहीं हैं। परंतु एंजेलिना उस अवधारणा को बदलने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहती हैं, “जो अन्याय से थक चुकी महिलाओं को ‘अस्वाभाविक और खतरनाक’ बताते हैं… समाज में निर्मित नियमों के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाली महिलाओं को असामान्य करार देते हुए, उनके लिए ‘अजीब, चरित्रहीन और खतरनाक’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं।”
आधुनिक युग में ऐसी सोच पर कायम रहना लज्जा-स्पद है। यू• एन• एच• सी• आर• की गुडविल एंबेसेडर अभिनेत्री ने कहा कि – “उनके इस आलेख का मतलब पुरुषों व बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराध को कमतर आंकना नहीं है।”
आश्चर्य होता है यह देख कर कि 21वीं सदी में भी ऐसी मानसिकता हावी है। समान अधिकारों व अन्याय के विरुद्ध मांग उठाने वाली महिलाओं को अस्वाभाविक व असामान्य करार करना,उन्हें विचित्र, चरित्रहीन, धूर्त व खतरनाक कहना…क्या यह महिलाओं के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं है? क्या गीता का संदेश त्याज्य है ‘यदि अधिकार मांगने से न मिले तो उसे छीन लेना श्रेयस्कर है’…अपराध नहीं है? क्या ऐसी नकारात्मक पुरुष मानसिकता को स्वीकारना अनिवार्य है?
शायद नहीं…संसार के प्रत्येक जीव को अपने ढंग से जीने का अधिकार है। यदि परिस्थितियां उसके प्रतिकूल हैं, तो उनका विरोध न करने वाले मनुष्य को आप क्या कहेंगे… शायद ज़िन्दा लाश…क्योंकि जिस इंसान में आत्मसम्मान,स्वाभिमान व अधिकारों के प्रति सजगता नहीं है, वह अस्तित्वहीन है,त्याज्य है।
हाँ !अधिकार व कर्त्तव्य अन्योन्याश्रित हैं। एक का अधिकार दूसरे का कर्त्तव्य है। सो! आवश्यकता है दायित्व-वहन की, एक-दूसरे के प्रति प्यार,सम्मान व समर्पण की… जिसकी अनुपालना दोनों के लिए आवश्यक है।
स्त्री व पुरुष गाड़ी के दो पहिए हैं। यदि एक कमज़ोर होगा, तो दूसरे की गति स्वतः धीमी पड़ जाएगी।
दूसरे शब्दों में समाज की उन्नति के लिए तालमेल व सामंजस्य आवश्यक है अन्यथा समाज में मासूमों की भावनाओं पर कुठाराघात होता रहेगा और लूट- खसोट, दुष्कर्म व हत्या के मामले बढ़ते रहेंगे, इनकी संख्या में निरंतर इज़ाफा होता रहेगा…चहुं ओर अव्यवस्था का साम्राज्य बना रहेगा।
सो!इसके लिये आवश्यकता है…नारी की भावनाओं, सोच व दृष्टिकोण को अहमियत देने की, उसके द्वारा समाज हित में किए गए योगदान व उसकी प्रति- भागिता अंकित करने की… यह तभी संभव हो पायेगा, जब वर्षों से प्रचलित रूढ़ियों, अंधविश्वासों व दकियानूसी मान्यताओं द्वारा दासता की ज़ंजीरों से मुक्त करवा पाना संभव होगा…उसे दोयम दर्जे का न स्वीकार कर, मात्र कठपुतली नहीं, संवेदनशील समाज के विशिष्ट अंग के रूप में स्वीकारेगा। यदि हम समाज को उन्नत करना चाहते हैं, तो हमें नारी को मात्र भोग्या व उपयोगिता की वस्तु नहीं, समाज के अभिन्न अंग के रूप में स्वीकारना होगा। जैसाकि सर्वविदित है कि एक सुशिक्षित बालिका दो घरों को सुव्यवस्थित करती है, आगामी पीढ़ी को सुसंस्कृत करने में संस्कारित करती है और समाज को एक नई दिशा प्रदान करती है।
बच्चे,सुखद परिवार की सुदृढ़ नींव होते हैं और माता -पिता की अनमोल विरासत व अभिन्न दौलत।अर्थात् जिनके बच्चे शिक्षित ही नहीं, सुसंस्कारित व शालीन होते हैं, मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करते…वे माता- पिता संसार में सबसे अधिक सौभाग्यशाली व निर्धन हो कर भी सबसे अधिक धनी होते हैं।
चलिए!विचार करते हैं इसके मुख्य उपादान पर। ..यदि आप अपनी पत्नी की भावनाओं का सम्मान कर, उसे बराबर का दर्जा देते हैं, उसका तिरस्कार नहीं करते, उसके त्याग व योगदान की सराहना करते हैं… सामाजिक विषमता, विश्रृंखलता व विसंगतियों का विरोध करने पर, दाहिने हाथ की भांति उसके साथ खड़े रहते हैं…उसकी भावनाओं का तिरस्कार कर, उसे अपमानित नहीं करते तो आप एक-दूसरे के प्रतिपूरक हैं, एक महत्वपूर्ण कड़ी है तथा आप परिवार व समाज को उन्नत व समृद्ध बना सकते हैं।
स्मरण होंगे.. आपको अंग्रेज़ी के यह मुहावरे ‘चैरिटी बिगिंस एट होम और ‘निप दी इविल इन दी बड ‘ अर्थात् घर से ही प्रारंभ होती, बुराई को प्रारंभ में ही दबा देना चाहिए अन्यथा वह कुत्तों की तरह समाज को दूषित कर देगी स्वस्थ समाज की शांति को लील जाएगी। महिलाओं को सम्मान व समान दर्जा देना, उसकी सद्भावनाओं व सत्कर्मों का बखान करना… आगामी पीढ़ी को सुसंस्कारों से सिंचित कर सकता है। हां! आवश्यकता है उसके बढ़ते कदमों को व यथोचित योगदान को देख सराहना करना। यदि वह उसे अपनी जीवनसंगिनी, हमसफ़र व शरीक़ेहयात समझ उससे शालीनता से व्यवहार करेगा तो वह यह सबके हित में होगा अन्यथा समाज से आतंक व अराजकता का शमन कभी नहीं होगा…समाज में सदैव भय, डर व आशंका का माहौल बना रहेगा… समाज में फैली कुरीतियों-दुष्प्रवृत्तियों का अंत नहीं कभी सम्भव नहीं होगा। राम राज्य की स्थापना का स्वप्न व समन्वय-सामंजस्य का स्वप्न कभी साकार नहीं होगा। शायद यह कपोल-कल्पना बनकर रह जाएगी। आइए! हम सब इस यज्ञ में अहम् की समिधा डालें क्योंकि अहम द्वंद्व व संघर्ष का जनक है, जिसका परिणाम हम परिवारों में माता-पिता के अलगाव के रूप में तथा बच्चों को एकांत की त्रासदी से जूझते हुए एकाकीपन के रूप में देखते हैं। संयुक्त परिवार व्यवस्था के टूटने पर वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या, महिलाओं की असामाजिक कृत्यों में प्रतिभागिता, फ़िरौती, हत्या आदि संगीन जुर्मों में लिप्तता हमारी नकारात्मक सोच को उजागर करती है। आइए!हम सब स्वस्थ समाज की संरचना में योगदान दें,जहां सब को यथोचित सम्मान मिल पाये। अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि अधिकारों की मांग करना, न मिलने पर प्रतिरोध कर बग़ावत का झंडा उठाना,अन्याय को सहन करने की प्रतिबद्धता को नकारना, महिलाओं के चरित्र का प्रमाण-पत्र नहीं है और न ही ऐसी महिलाओं का,जो समाज में व्याप्त अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाती हैं…उन्हें अस्वाभाविक व खतरनाक समझने का कोई औचित्य है। इस लाइलाज रोग से निज़ात पाने का एकमात्र उपाय है…समाज की सोच को परिवर्तित कर, नारी को दोयम दर्जे का न समझ, समानता का दर्जा प्रदान किया जाये। शायद!इसके परिणाम- स्वरूप लोगों की दूषित मानसिकता में परिवर्तन हो जाये।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
मो• न•…8588801878