श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “जोड़ तोड़ की जद्दोजहद”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 79 – जोड़ तोड़ की जद्दोजहद 

लक्ष्य प्राप्ति के लिए आगे बढ़ते समय दो प्रश्न हमेशा ही मन में कौंधते हैं कि ऐसी क्या वजह है कि हम जोड़ने से ज्यादा तोड़ने पर विश्वास करते हैं। क्यों नहीं सकारात्मक कार्यों में जुट कर कुछ अच्छा व सार्थक करें पर नहीं हमें तो सब पर अपना आधिपत्य जमाना है सो हमारे हाथ में उन लोगों की लगाम कैसे आए यही चिंतन दिन रात चलता रहता है। ये भी अटल सत्य है कि जिस चीज को जी जान से चाहो वो तुरंत मिल जाती है पर क्या उसे पाने के बाद मन प्रसन्न होगा?

सबको साथ लेकर चलें, श्रेय लेने की कोशिश करने पर ही सारे विवाद सामने आते हैं। जब अपनी सोच एकदम स्पष्ट होगी तो विवाद का कोई प्रश्न नहीं उठेगा। गति और प्रगति के बीच की रेखा यदि स्पष्ट हो तो सार्थक परिणाम दिखाई देने लगते हैं। धीरे – धीरे ही सही जो लगातार चलता है वो विजेता अवश्य बनता है और यही तो उसके प्रगति की निशानी है। सबको साथ लेकर चलने पर जो आंनद अपनी उपलब्धियों पर मिलता है वो तोड़फोड़ करने पर नहीं आता। जो मजबूत है उसका सिक्का तो चलना ही है। बस नियत सच्ची हो तो वक्त बदलने पर भी प्रभाव कम नहीं होता है।

समझाइश लाल जी सबको समझाते हुये सारे कार्य करते और करवाते हैं किंतु जब उनकी बारी आती है तो समझदारी न जाने कहाँ तफरी करने चली जाती है। खुद के ऊपर बीतने पर क्रोध से लाल पीले होते हुए अनर्गल बातचीत पर उतर आते हैं। तब सारे नियमों को ध्वस्त करते हुए नयी कार्यकारिणी गठित कर लेते हैं। पुरानों को सबक सिखाने का ये अच्छा तरीका है।वैसे भी बोलने वालों  के  मुख पर लगाम कसना ही शासक का धर्म होता है। अनचाही चीजों को हटाने का नियम तो वास्तु शास्त्र में भी है। जो भी चीज अनुपयोगी हो उसे या तो किसी को दे दो या नष्ट कर देना चाहिए। कबाड़ कबाड़ी के पास ही शोभता है।

सबसे जरूरी बात ये है कि जब हम लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं तो रास्ते में बहुत सारे भ्रमित करने वाले चौराहे मिलते हैं किन्तु हमें लक्ष्य पर केंद्रित होते हुए सही दिशा को ही चुनना पड़ता है। भले ही वहाँ काँटे बिछे हों। चारो तरफ अपनी शक्ति को न बिखेरते हुए केवल और केवल लक्ष्य पर केंद्रित होना चाहिए। हाँ इतना जरूर है कि साधन और साध्य के चयन में ईमानदारी बरतें अन्यथा वक्त के मूल्यांकन का सामना करते समय आप पिछड़ जाएंगे। ये सब तो प्रपंच की बातें लगतीं हैं वास्तविकता यही है कि जहाँ स्वार्थ सिद्ध हो वहीं झुक कर समझौता कर लेना चाहिए। होता भी यही है, सारे दूरगामी निर्णय लाभ और हानि को ध्यान में रखकर किए जाते हैं ये बात अलग है कि वक्त के साथ व्यवहार बदलने लगता है आखिर मन का क्या है वो ऊबता बहुत जल्दी है और इसी जद्दोजहद में ऊट कब किस करवट बैठ जाए इसे केवल परिस्थिति ही तय करेगी।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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