श्रीमति विशाखा मुलमुले
(हम श्रीमती विशाखा मुलमुले जी के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने ई-अभिव्यक्ति के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना जगह भर जाती है . अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 2 – विशाखा की नज़र से ☆
☆ जगह भर जाती है ☆
मुठ्ठी में रेत उठाओ
चुल्लू पानी का बनाओ
समुद्र से नदी बनाओ
उल्टा चाहे क्रम चलाओ
रीती जगह नही रहती
जगह भर जाती है ….
आँखों से आँसू बहे
पत्ते चाहे जितने झरे
आँखों में फिर पानी
पेड़ों में हरियाली
जगह भर जाती है ….
गर्म हवा ऊपर उठी
ठंड़ी हवा दौड़ पड़ी
निर्वात की वजह नही
रूखी हो या नमी
जगह भर जाती है ….
एक शख्स जगता रहा
इधर -उधर दौड़ता रहा
देह छुटी आत्मा मुक्त
उसकी निशानी ना चिन्ह कहीं
कुछ ही समय की बात है
यादें , यादों के साथ है
रिक्त जगह नहीँ रहती
जगह भर जाती है …….
© विशाखा मुलमुले
पुणे, महाराष्ट्र