डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “हिंदी साहित्य की पुस्तकों के बढ़ते मूल्य व अनुपलब्धता एक चुनौती।)

☆ किसलय की कलम से # 63 ☆

हिंदी साहित्य की पुस्तकों के बढ़ते मूल्य व अनुपलब्धता एक चुनौती ☆

हमारी हिंदी विश्व की श्रेष्ठ भाषाओं में शामिल है। विश्व के अधिकांश देश हिंदी और हिंदी पुस्तकों-ग्रंथों के प्रति रुचि रखते हैं। विभिन्न देशों के लोग हिंदी भाषा से परिचित हैं, बोलने और पढ़ने के अतिरिक्त वहाँ हिंदी सिखाई भी जाती है। इसका मुख्य कारण हिंदी जैसी लिखी जाती है वैसी ही पढ़ी जाती है। समृद्ध साहित्य और परिपक्वता इसकी विशिष्टता है। आज विश्व का समस्त ज्ञान हिंदी माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। हिंदी भाषा निश्चित रूप से देवभाषा संस्कृत से बनी है। संस्कृत के प्रायः अधिकांश ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद हो चुका है। हिंदी के महान लेखकों एवं कवियों द्वारा प्रचुर मात्रा में सृजन भी हुआ है। इस तरह हिंदी साहित्य अपने आप में साहित्य का सागर बन चुका है।

प्रारंभ में हिंदी पुस्तकों की हस्तलिखित पांडुलिपियाँ हुआ करती थीं। शनैः शनैः अक्षर कंपोज करने वाली प्रिंटिंग मशीनों से आगे आज ऑफसेट मशीनें बाजार में उपलब्ध हैं। अंतरजाल की बढ़ती उपयोगिता के चलते आज अधिकांश हिंदी साहित्य डिजिटल फार्म में भी सुरक्षित किया जाने लगा है। अत्यंत उपयोगी पुस्तकों के तो अनेक संस्करण निकलते रहते हैं। उनकी उपलब्धता बनी रहती है, लेकिन जो सामान्य, दिवंगत अथवा सक्षम लोगों की श्रेष्ठ पुस्तकें हैं उनका पुनः प्रकाशन नहीं हो पाता जिस कारण एक बड़ा पाठक वर्ग लाभान्वित होने से वंचित रहता है। आर्थिक, बौद्धिक व बहुमूल्य समयदान के उपरांत साहित्यकारों का सृजन जब पुस्तक का रूप लेता है तब यह खुशी उनको अपनी संतान के जन्म से कमतर नहीं लगती। प्रत्येक लेखक अथवा कवि का सपना होता है कि उनकी पुस्तक का प्रचार-प्रसार हो। लोग उनकी पुस्तक के माध्यम से उनको जानें।

आज हम देख रहे हैं कि अधिकांश पूर्व प्रकाशित उपयोगी पुस्तकें धीरे-धीरे नष्ट हो रही हैं और कुछ गुमनामी के अँधेरे में चली जा रहीं हैं। उनकी उपयोगिता और दिशाबोधिता की किसी को चिंता नहीं होती, न ही शासन की ऐसी कोई जनसुलभ नीतियाँ हैं, जिनसे इन प्रकाशित पुस्तकों की कुछ प्रतियाँ ग्रंथालयों में सुरक्षित रखी जा सकें। आज अक्सर देखा जाता है कि पाठक जिन पुस्तकों को पढ़ना चाहता है वे बाजार में उपलब्ध ही नहीं रहतीं अथवा इतनी महँगी होती हैं कि आम पाठक इनको खरीदने में असमर्थ रहता है।

आज जब शासन समाचार पत्रों, सरकारी अकादमियों एवं विभिन्न शासकीय विभागों को प्रकाशन हेतु सब्सिडी और सहायता देता है। विभिन्न शासकीय योजनाओं के चलते भी इनका लाभ आज सुपात्र को कम, जुगाड़ व पहुँच वालों को ज्यादा मिलता है। इसके अतिरिक्त यह भी देखा गया है कि दिवंगत अथवा गुमनाम साहित्यकारों की पुस्तकों के पुनः प्रकाशन अथवा उनकी पांडुलिपियों के प्रकाशन की कोई भी सरकारी आसान योजना नहीं है। ऐसा कोई विभाग भी नहीं है जो लुप्त हो रहे ऐसे हिंदी साहित्य को संरक्षित करने का काम कर सके।

देश में जब धर्म के नाम पर, संस्थाओं के नाम पर, सामाजिक सरोकारों के नाम पर, जनहित के नाम पर सहायता, सब्सिडी और अन्य तरह से राशि उपलब्ध करा दी जाती है, तब क्या अथक बौद्धिक परिश्रम और समय लगाकर सृजित किए गए उपयोगी साहित्य प्रकाशन हेतु उक्त सहायता प्रदान नहीं की जाना चाहिए? होना तो यह चाहिए कि एक ऐसा सक्षम शासकीय संस्थान बने जो पांडुलिपियों की उपादेयता की जाँच करे और साहित्यकारों के संपर्क में भी रहे जिससे वे अपने साहित्य के निशुल्क प्रकाशन हेतु उस संस्थान तक सहजता से पहुँच सकें।

बिजली की छूट, किसानों को छूट, गरीबों को छूट, आयकर में छूट के अलावा रसोई गैस और सौर ऊर्जा पर सब्सिडी दी जाती है तो क्या प्रकाशित उपयोगी पुस्तकों के क्रय पर कुछ सरकारी छूट उपलब्ध नहीं हो सकती? इससे इन पुस्तकों को लोग आसानी से खरीद कर लाभान्वित तो हो सकेंगे। अन्य प्रक्रिया के अंतर्गत उपयोगी पुस्तकों के प्रकाशन पर भी सरकारी मदद मिलना चाहिए क्योंकि आज अकादमियों अथवा शासकीय योजनाओं से लाभ लेना हर साहित्यकार के बस में नहीं होता। पहुँच, जोड़-तोड़, उपयोगिता सिद्ध करना सब कुछ उन्हीं के पास होता है जो सरकारी सहायता चेहरे देखकर प्रदान करते हैं।

वाकई आज हिंदी साहित्य की पुस्तकों की महँगी कीमतें हिंदी पाठक के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है। कुछ भी हो हिंदी साहित्य की पुस्तकों हेतु छपाई वाला उपयुक्त पेपर सस्ते दामों में मिलना चाहिए। आसमान को छूते प्रिंटिंग चार्ज भी कम होना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि जब पुस्तकों के प्रकाशन की लागत कम होगी तभी अधिक से अधिक हिंदी साहित्य की पुस्तकें बाजार में उपलब्ध हो पाएँगी और लोग अधिक से अधिक लाभान्वित भी हो सकेंगे। दुर्लभ होती जा रहीं उपयोगी पुस्तकों का पुनः प्रकाशन सरकारी खर्च पर होना चाहिए।

जब कहा गया है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है तब साहित्यिक पुस्तकों के ऊँचे दाम तथा इनकी अनुपलब्धता के चलते समाज का दर्पण क्या दिखाएगा? साहित्य का संरक्षण व संवर्धन हमारी संस्थाओं तथा सरकार की प्राथमिकता में होना चाहिए। साहित्यकारों को दी जाने वाली सुविधाएँ व प्रोत्साहन ही उपयोगी साहित्य सृजन को अपेक्षित बढ़ावा देगा। इस तरह हम कह सकते हैं कि सभी के मिले-जुले प्रयास ही हिंदी साहित्य की पुस्तकों के बढ़ते मूल्य और अनुपलब्धता का समाधान है।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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Hemant Bawankar

सार्थक एवं विचारणीय आलेख

Subedarpandey

उत्कृष्ट सारगर्भित रचना ‌यथार्थ दर्शन बधाइ अभिनंदन आदरणीय श्री

विजय तिवारी " किसलय "

आदरणीय बावनकर जी,
नमस्कार,
आलेख प्रकाशन पर आभार आपका।
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