श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
मनुष्य की देह पाना, जीव की सबसे बड़ी संभावना है। इस देह को बुद्धितत्व का वरदान मिला है। इस वरदान के चलते मनुष्य अपने अस्तित्व पर विचार कर सकता है। विसंगति यह कि प्राय: यह अस्तित्वबोध गहरे नहीं उतरता। मनुष्य वस्त्र विशेष, संप्रदाय विशेष, आचार विशेष, विचार विशेष को अस्तित्व से जोड़ लेता है। अनेकदा वह जगत को ही नकारने लगता है, देह को गौण कर देता है। ध्यान देने योग्य बात है कि देह से ही अस्तित्व है। मनुष्य की देह जगत में व्याप्त पाँच तत्वों का मिश्रण है। यही कारण है कि ‘जो ब्रहमांड में, वही पिंड में!’ अस्तित्व का रनवे यही है। टेक ऑफ यहीं से करना है। रनवे से ही इंकार करोगे तो टेक ऑफ कैसे करोगे?
वस्तुत: मनुष्य तत्व का विस्तार, मनुष्य को ईश्वरीय पथ पर ले जाने में सहायक होता है। मनुष्य तत्व से दूर रहकर जीव, ईश्वर के पथ पर जाना तो दूर, सामान्य मनुष्य भी नहीं रहने पाता।
आचार्य रामानुज के पास शिष्य होने का इच्छुक एक युवक आया। आचार्य जी ने पूछा कि वह भक्ति के पथ पर क्यों चलना चाहता है? युवक ने उत्तर दिया, “मैं ईश्वर से प्रेम करना चाहता हूँ। अपनी प्रीति ईश्वर से रखना चाहता हूँ, ईश्वर तक पहुँचना चाहता हूँ।” आचार्य जी बोले, “यह अच्छी बात है कि ईश्वर से प्रीति तेरा उद्देश्य है। अच्छा भला बता कि जगत में तुझे किस-किससे प्रेम है, किस-किससे प्रीति है?” युवक ने कहा, “मुझे अपने रिश्ते नातों से, अपने माता-पिता से, भाई -बहन, किसीसे किसी प्रकार की कोई प्रीति नहीं। जगत मिथ्या है, मायाजाल है। मैं इस से मुक्त होकर केवल ईश्वर से प्रीति रखना चाहता हूँ।” आचार्य जी ने गंभीर होकर कहा, “तब तो तू इस पथ पर चलने के योग्य नहीं है।” इस उत्तर से निराश हुआ युवक कुछ आक्रोश से बोला,” आचार्य जी, जगत से मुक्त होना, ईश्वर के पथ पर चलने की पहली सीढ़ी मानी जाती है। मैं उस सीढ़ी तक पहुँच चुका और आप मुझे लौटा रहे हैं।”
स्नेह भाव से आचार्य जी बोले,” ईश्वर से प्रीति करना चाहता है पर हृदय में प्रीति रखना नहीं चाहता। भीतर थोड़ी- सी भी प्रीति होगी तो उसका विस्तार परमेश्वर से प्रीति करने में हो सकता है। परंतु यदि बीज ही नहीं है अंकुर कैसे उगेगा? अंकुर नहीं उगेगा तो पौधा कैसे बनेगा? पौधा नहीं होगा तो वृक्ष कैसे खड़ा होगा?”
इसी विचार का विस्तार करने की आवश्यकता है। प्रेम जगत का आधार है, प्रीति जगत की नींव है। जगत से नि:स्वार्थ प्रेम करो, परमात्मा तुम्हारी परिधि में खिंचे चले आएँगे। चराचर के कल्याण की सद्भावना, ईश्वर तक पहुँचने की संभावना बनेगी। यही संभावना आगे चलकर अन्वेषण को बाहर के बजाय भीतर मोड़ेगी, साक्षात्कार होगा और जन्म धन्य हो उठेगा। …स्मरण रहे, पल-पल बीत रहा तुम्हारा यह जन्म धन्य होने की प्रतीक्षा में है।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
सत्य हे, बीज नहीं तो अंकुर कहाँ से फूटेगा…..
ईश्वर का दर्शन प्रेम में ही है।प्रेम से ही भक्ति का जन्म है।
हमारे सभी ऋषि -मुनि सपत्नीक रहकर ही तपस्या किया करते थे, परिवार के प्रति कर्त्तव्य पहली पूजा है।
अति सुंदर विश्लेषण
जगत से नि:स्वार्थ प्रेम ही ईश्वर को पाने का प्रथम सोपान है। बहुत सुंदर बात कही है।
प्रेम ही जगत का मूलाधार है, संसार में रहकर भी देहधारी ईश्वर को पा सकता है , उत्कृष्ट शैली में ब्रह्मांड का परिचय कराती रचना के लिए रचनाकार के प्रति
कृतज्ञता-अभिव्यक्ति ..…