श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 120 ☆ भोर भई ☆
अपने विचारों में खोया चला जा रहा हूँ। अकस्मात देखता हूँ कि आँख से लगभग दस फीट आगे, सिर पर छाया करते किसी वृक्ष का एक पत्ता झर रहा है। सड़क पर धूप है जबकि फुटपाथ पर छाया। झरता हुआ पत्ता किसी दक्ष नृत्यांगना के पदलालित्य-सा थिरकता हुआ नीचे आ रहा है। आश्चर्य! वह अकेला नहीं है। उसकी छाया भी उसके साथ निरंतर नृत्य करती उतर रही है। एक लय, एक ताल, एक यति के साथ दो की गति। जीवन में पहली बार प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों सामने हैं। गंतव्य तो निश्चित है पर पल-पल बदलता मार्ग अनिश्चितता उत्पन्न रहा है। संत कबीर ने लिखा है, ‘जैसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला। न जानूँ किधर गिरेगा,लग्या पवन का रेला।’
इहलोक के रेले में आत्मा और देह का सम्बंध भी प्रत्यक्ष और परोक्ष जैसा ही है। विज्ञान कहता है, जो दिख रहा है, वही घट रहा है। ज्ञान कहता है, दृष्टि सम्यक हो तो जो घटता है, वही दिखता है। देखता हूँ कि पत्ते से पहले उसकी छाया ओझल हो गई है। पत्ता अब धूल में पड़ा, धूल हो रहा है।
अगले 365 दिन यदि इहलोक में निवास बना रहा एवं देह और आत्मा के परस्पर संबंध पर मंथन हो सका तो ग्रेगोरियन कैलेंडर का कल से आरम्भ हुआ यह वर्ष शायद कुछ उपयोगी सिद्ध हो सके।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
पत्ते का झरना स्वाभाविक है, उसकी छाया का साथ होना प्राकृतिक है, और उसे झरते हुए देखने वाले की दृष्टि ने जो सकारात्मक दृश्य को जन्म दिया वह अद्भुत है!
यही दृष्टिकोण तो रचनाकार को संजयदृष्टि देता है।अहो भाग्य है हम सबका जो ऐसी रचनाएँ पढ़ने को प्रातः मिलती है।https://s.w.org/images/core/emoji/13.1.0/svg/1f44d-1f3fc.svghttps://s.w.org/images/core/emoji/13.1.0/svg/1f44d-1f3fc.svghttps://s.w.org/images/core/emoji/13.1.0/svg/1f44c-1f3fc.svghttps://s.w.org/images/core/emoji/13.1.0/svg/1f44c-1f3fc.svghttps://s.w.org/images/core/emoji/13.1.0/svg/1f339.svghttps://s.w.org/images/core/emoji/13.1.0/svg/1f339.svghttps://s.w.org/images/core/emoji/13.1.0/svg/1f64f-1f3fb.svghttps://s.w.org/images/core/emoji/13.1.0/svg/1f64f-1f3fb.svg
पत्ते का झरना स्वाभाविक है, उसकी छाया का साथ होना प्राकृतिक है, और उसे झरते हुए देखने वाले की दृष्टि ने जो सकारात्मक दृश्य को जन्म दिया वह अद्भुत है!
यही दृष्टिकोण तो रचनाकार को संजयदृष्टि देता है।अहो भाग्य है हम सबका जो ऐसी रचनाएँ पढ़ने को प्रातः मिलती है।
दीवार के भीतर लगे वृक्ष का दीवार के बाहर भी छाया देना या सूखे पत्ते का दक्ष नृत्यांगना के पद लालित्य सा थिरकते हुए नीचे आना जैसी सुंदर परिकल्पनाओं से सजा आलेख। बधाई।