श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 121 ☆ अहम् और अहंकार ☆
प्रबोधन और व्याख्यान के लिए विभिन्न समुदायों के बीच जाना होता रहता है। प्रायः हर मंच से कहा जाता है कि फलां समुदाय या वर्ग की एकता देखो, पर हम ऐसी केकड़ा प्रवृत्ति के हैं कि हमारा वर्ग कभी एक नहीं हो सकता। जबकि सत्य यह है कि कोई भी समुदाय इसका अपवाद नहीं है। अलबत्ता अहंकार की अधिकता व्यक्ति विशेष को सर्वग्राही, सर्वमान्य बनने से रोकती है।
सिक्के का दूसरा पहलू है कि अहम् के भाव के बिना कोई प्रगति कर भी नहीं सकता। यहाँ ‘अहम्’ का संदर्भ अपने अस्तित्व के प्रति सचेत रहने, अपने पर विश्वास रखने से है। तथापि ‘अति सर्वत्र वर्ज्येत’, यहाँ भी लागू होता है। इस अहम् को विस्तार न दें, आकार न दें। यह ऐसा ही है जैसे थोड़ी सी आग से हाथ सेंककर ठंड दूर कर ली जाए या भोजन बना लिया जाए, पर आग यदि बढ़ जाए, अलाव दावानल में बदल जाए तो उसमें व्यक्ति स्वयं ही भस्मीभूत हो जाएगा। अहम् को आकार देना ही अहंकार है, इससे बचें।
फिर अहंकार भी किसलिए ! नीति कहती है कि हर मूल का मूल पहले से ही मौजूद है। सृष्टि में मौलिक कुछ भी नहीं है। जो बात हमने आज जानी, वह हम से पहले लाखों जानते थे, हमारे बाद करोड़ों जानेंगे। अपने ज्ञान की तुलना यदि हम अपने अज्ञान से करें तो कथित ज्ञान स्वयं ही लज्जित हो जाएगा, उसका आकार बहुत छोटा हो जाएगा, अतः आवश्यक है-अहंकार का निर्मूलन।
कबीर लिखते हैं-
जब मैं था तब हरि नाहिं, अब हरि हैं मैं नाहिं,
प्रेम गली अति सांकरी, जामें दो न समाहिं।
अहंकार होगा तो हरि कैसे मिलेंगे, यदि हरि नहीं मिलेंगे तो अज्ञान का तम कौन हरेगा? मनुष्य के हाथ में कर्म तो है पर फल की निष्पत्ति उसके बस में नहीं।
समय के कुप्रबंधन के शिकार प्रायः कहते हैं, ‘आज इतना व्यस्त रहा कि भोजन के लिए समय ही नहीं रहा।’ अर्थात् सारी भाग-दौड़ के बाद भी उस दिन भोजन पाना या ना पाना उसके हाथ में नहीं है। ‘मैं’ की अति व्यक्ति को दृष्टिहीन-सा कर देती है। वह कर्म का नियंता और उपभोक्ता भी खुद को ही समझने लगता है।
किसी नगर में एक साधु आए। नगरसेठ ने मुनीम के हाथ उस दिन के भोजन का निमंत्रण भेजा। नगरसेठ के यहाँ काम करते-करते मुनीम की ज़बान पर अहंकार चढ़ गया था। जाकर साधु से कहा,”आपको आजका भोजन हमारे सेठ खिलायेंगेे।” साधु फक्कड़ था, कहा,”अपने सेठ से कहना आज तो तू खिला रहा है, कल कौन खिलायेगा?” मुनीम ने सारा किस्सा जाकर सेठ को सुनाया। सेठ बुद्धिमान और विनम्र था। सारी बात समझ गया। स्वयं साधु के पास पहुँचा और हाथ जोड़कर बोला,” महाराज कल जिसने खिलाया था, आज भी वही खिला रहा है और आनेवाले कल भी वही खिलायेगा। मुझे तो उसने आज के लिए निमित्त भर बनाया है।”
मनुष्य के लिए अपनी इस नैमित्तिक स्थिति को समझना ज़रूरी है। पथिक यदि यह मान ले कि वह नहीं चलेगा तो पगडंडी कहीं जाएगी ही नहीं, वहीं पड़ी रहेगी, तो इससे बड़ी नादानी कोई नहीं।
धन, प्रसिद्धि, रूप आदि का संचय व्यक्ति को बौरा देता है। लोग बटोरकर बड़ा होना चाहते हैं। विनम्रता से कहना चाहता हूँ, “बाँटकर देखो, जितना बाँटोगे, अहंकार घटेगा। जितना अहंकार घटेगा, उतना तुम्हारा कद बढ़ेगा।”… विश्वास न हो तो प्रयोग करके देख लो।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
सच है, अहंकार को त्याग कर मनुष्य को लोगों में बांटने का कार्य करना चाहिए क्योंकि देने वाला तो वो ऊपरवाला ही है, हम तो बस निमित्त मात्र हैं।