हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 18 ☆ चलते-फिरते पुतले ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी  का  आलेख  “चलते-फिरते पुतले”.  डॉ  मुक्ता जी ने इस आलेख के माध्यम से  टूटते हुए संयुक्त परिवारों  ही नहीं अपितु  एकल परिवारों में भी होते हुए बिखराव पर विस्तृत चर्चा की है.  उन्होंने  सामाजिक  इकाइयों के बिखराव पर न केवल अपनी राय रखी है अपितु  बच्चों से लेकर बड़े बूढ़ों तक की मनोदशा की भी विस्तृत चर्चा की है . अब आप स्वयं पढ़ कर आत्म मंथन करें  कि – हम इस दिशा में क्या कर सकते हैं?  आदरणीया डॉ मुक्ता जी  का आभार एवं उनकी कलम को इस विषय पर चर्चा की पहल के लिए नमन।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 18 ☆

 

☆ चलते-फिरते पुतले ☆

 

न कुछ सुनते हैं और न कुछ कहते हैं/ मेरे घर में चलते-फिरते पुतले रहते हैं… इन पंक्तियों ने अंतर्मन को झिंझोड़ कर रख दिया। कितनी पीड़ा, कितनी टीस, कितना दर्द भरा होगा हृदय में…और कितनी संजीदगी से मनोव्यथा को बयान कर सुक़ून पाया होगा अनाम कवयित्री ने। वैसे तो आजकल यह घर- घर की कहानी है। हर इंसान यहां एकांत की त्रासदी झेल रहा है। एक छत के नीचे रहते हुए पति-पत्नी में पनप रहा, अजनबीपन का अहसास अक्सर देखा जा रहा है, जिसका सबसे अधिक खामियाज़ा बच्चे व वृद्ध भुगत रहे हैं…जो सबके बीच रहते हुए भी स्वयं को अकेला अनुभव करते हैं। यह जनमानस की पीड़ा है..और है आज के समाज का कटु यथार्थ। संयुक्त परिवार प्रथा टूटने के कग़ार पर है… अंतिम सांसें ले रही है और उसके स्थान पर बखूबी काबिज़ है… एकल परिवार-व्यवस्था। जिन परिवारों में बुज़ुर्ग रहते भी हैं, उनकी मन:स्थिति विचित्र-सी रहती है… जैसे भीड़ में व्यक्ति स्वयं को खोया-खोया अनुभव करता है और अपनी सोच, अपनी कल्पनाओं व अपने भावों-विचारों में गुम रहता है…लाख प्रयत्न करने पर भी वह उस परिवार का हिस्सा नहीं बन पाता।

आश्चर्य होता है कि आजकल तो कामवाली बाईयों को भी परिवार की परिभाषा समझ में आ गई है। वे जानती हैं कि परिवार में तीन या चार प्राणी होते हैं… पति-पत्नी और एक या दो बच्चे। सो! वे आजकल कल संयुक्त परिवार में कार्य करने को तत्पर नहीं होतीं और टका-सा जवाब देकर रुख्सत हो जाती हैं। छोड़िए! इतना ही नहीं, आजकल बच्चे भी इस तथ्य से भली-भांति परिचित हैं कि परिवार रूपी इकाई में दादा-दादी का स्थान नहीं होता। सो! वे सदैव अपने माता-पिता के साथ रहना अधिक पसंद करते हैं और यह स्वाभाविक भी है। घर में बड़े-बुज़ुर्ग तो दिनभर प्रतीक्षारत रहते हैं और अपने आत्मजों तथा नाती- पोतों की एक झलक प्राप्त कर खुद को खुशकिस्मत समझते हैं। कई बार तो महीनों तक संवाद होता ही नहीं। परंतु तीन-चार फुट दूरी से सुबह-शाम पांव छूने का औपचारिक सिलसिला अनवरत जारी रहता है और वे उनपर आशीषों  की वर्षा करते नहीं अघाते।

‘न कुछ सुनते हैं, न कुछ कहते हैं’…यह संवादहीनता की स्थिति ‘कैसे हैं’,’ठीक हूं’ ‘खुश रहो’ तक सिमट कर रह जाती है। अपने-अपने द्वीप में कैद,एक-दूसरे के सुख-दु:ख से बेखबर,पति-पत्नी में भी कहां हो पाता है मधुर संवाद…अक्सर वे संवाद नहीं, विवाद में विश्वास रखते हैं..एक-दूसरे पर अपने मन की भड़ास निकालते हैं और दोषारोपण करना तो मानो उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है। ऑफिस का दिनभर का गुस्सा, घर में दस्तक देते ही एक-दूसरे पर निकाल कर, वे सुक़ून पाते हैं। बच्चे,जब देर रात अपने माता-पिता को चीखते-चिल्लाते देखते हैं तो वे सोने का उपक्रम करते हैं…कहीं वे ही उनके क्रोध का शिकार न बन जाएं।

दिनभर आया या नैनी के आंचल में पनपते बच्चे, माता-पिता के स्नेह व प्यार-दुलार के अभाव में स्वयं को निरीह, नि:स्सहाय व नितांत अकेला अनुभव करते हैं। मोबाइल, टी•वी• व मीडिया से अत्यधिक जुड़ाव उन्हें अपराध जगत् की ओर प्रवृत्त करता है और उस दलदल से वे चाह कर भी निकल नहीं पाते। शराब व ड्रग्स के नशे में वे औचित्य-अनौचित्य का भेद नहीं कर पाते और बचपन में ही जघन्य- घिनौने अपराधों को अंजाम देकर अपने जीवन को नरक में धकेल देते हैं। बच्चों को इन दुर्दम-भीषण परिस्थितियों में देख कर, माता-पिता हैरान-परेशान से, स्वयं को किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में पाते हैं। और हर संभव प्रयास करने पर भी वे उन्हें लौटा पाने में स्वयं को असहाय-असमर्थ पाते हैं।

वे इन विषम परिस्थितियों में बच्चों को हर पल टूटते हुए देखकर दु:खी रहते हैं तथा सोचते हैं आखिर उनके संस्कारों में कहां कमी रह गई? उनके आत्मज गलत राहों पर क्यों अग्रसर हो गये? उन्होंने सब सीमाओं का अतिक्रमण क्यों कर लिया? विवाह के पवित्र-बंधन को नकार वे सदैव एक-दूसरे को नीचा दिखलाने में क्यों लीन रहे? यहां तक कि वे अपने बच्चों को भी दिशाहीन होने से भी नहीं रोक पाए। वे अपने भाग्य को कोसते हुए स्वयं को दोषी अनुभव करते हैं।

आधुनिक प्रतिस्पर्द्धात्मक युग में अक्सर माता-पिता लिव इन या अलगाव की स्थिति में पहुंच,अपने बच्चों का भविष्य दांव पर लगा यह सोचते हैं कि ‘जो बच्चों के भाग्य में लिखा होगा, उन्हें अवश्य मिल जाएगा।’ उनके भविष्य के लिए ऐसे माहौल में रहकर अपना जीवन नष्ट करना करने की उन्हें कोई उपयोगिता- उपादेयता नज़र नहीं आती। वास्तव में यही है, आज की युवा पीढ़ी के जीवन का कटु सत्य… जिससे उन्हें हर पल जूझना पड़ता है। वे घर में चलते-फिरते पुतलों की मानिंद प्रतीत होते हैं…अहसासों व  जज़्बातों से कोसों दूर, जिनमें न सौहार्दपूर्ण-  पारस्परिक संबंध होते हैं, न ही सरोकार। उनमें संवादहीनता ही नहीं, व्याप्त होती है संवेदनशून्यता, एक-दूसरे के प्रति उपेक्षा भाव, जहां वे अहंनिष्ठता के कारण अपनी-अपनी दुनिया मस्त रहते हुए, इतनी दूरियां बढ़ा लेते हैं, जिन्हें पाटना व जहां से लौट पाना असंभव हो जाता है।

काश! ये चलते-फिरते, कुछ न कहते पुतले आत्म- मुग्धावस्था को त्याग, एक-दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार कर, अपने बच्चों के भविष्य के प्रति चिंतित रहते हुए व अपने माता-पिता के प्रति दायित्व-वहन करते हुए जीवन पथ पर अग्रसर होते… तो ज़िन्दगी बहुत खूबसूरत होती। हर दिन उत्सव होता और घर में संवेदनशून्यता की स्थिति के स्थान पर,एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव होता तथा मन-आंगन में चिर- वसंत रहता। आइए! दिनों के फ़ासलों को मिटा, संकीर्ण मानसिकता को त्याग, समर्पण भाव से जीवन-पथ पर अग्रसर हों, जहां अलौकिक आनंद बरसे, बच्चों के मान-मनोबल से घर-आंगन गूंजता रहे। यही होगी हमारे जीवन की सार्थकता…निकट भविष्य में बच्चों को घर में रहते एकांत की त्रासदी को झेलना न पड़े व माता-पिता को वृद्धाश्रम में अपनी ज़िन्दगी को न ढोना पड़े और उन अपनों के इंतज़ार में उनकी आंखें गंगा-जमुना की भांति बरसती न रहें।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878