डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना अपराध से कम नहीं ।)

☆ किसलय की कलम से # 67 ☆

☆ धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना अपराध से कम नहीं ☆ 

ईश्वर ब्रह्मांड की सर्वोच्च-शक्ति का पर्याय है। यही शक्ति जगत नियंता के नाम से भी जानी जाती है। आदि मानव से वर्तमान मानव के विकास में अनेक पड़ाव आए। मानव का प्राकृतिक गोद में जन्म लेने के कारण मानव और प्रकृति का अभिन्न नाता बना हुआ। है शनैः शनैः मानव द्वारा कृतज्ञता, भय, उपलब्धियों एवं अलौकिक चमत्कारों को देख-देखकर कुछ अदृश्य शक्तियों, प्रतीकों, जीवों आदि को पूजा-आराधना की श्रेणी में रखने का क्रम शुरू किया गया। सामाजिक व्यवस्थाओं की शुरुआत होते-होते कुछ शक्तिशाली, विशेष लोगों, महापुरुषों, राजा-महाराजाओं व ऋषि-मुनियों द्वारा उल्लिखित सिद्धांतों का अनुगमन करना तथा उनकी स्तुतियाँ करना आदि प्रारंभ हो गया। समय के साथ-साथ कुछ प्रतीकों व दिव्य प्रतिभावानों को देवी-देवताओं के रूप में मान्यता प्राप्त हो गई।

दुनिया में समाज व संस्कृति विकसित होती गई। अनेक धर्म व संप्रदाय बनते चले गए। एक समय ऐसा भी आया कि लोगों द्वारा अपने-अपने धर्मों की श्रेष्ठता और वर्चस्व स्थापित करने हेतु तरह-तरह के नैतिक-अनैतिक कार्य किए जाने लगे। समय बदला और बदलता भी जा रहा है, लेकिन आज भी कहीं न कहीं, किसी न किसी के ऊपर अपने धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने का भूत सवार हो ही जाता है, जबकि यह प्रामाणिक बात है कि सभी धर्म मानवीय हितों के संवाहक होते हैं।

आज संपूर्ण विश्व में लोग अपने अपने धर्मों की मान्यतानुसार अपना जीवन जी रहे हैं। यह एक सत्यता है कि विसंगतियों एवं सहमति-असहमतियों का क्रम आदि काल से ही शुरू हो गया था और अनादि काल तक चलता रहेगा। हमारा देश विभिन्न धर्मावलंबियों का देश है। सभी को धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त है और उसी के अनुरूप सभी जीवन जी भी रहे हैं। पूर्व के शासकों की गलतियों, दुष्प्रचारों एवं तानाशाही रवैये से हमारी सामाजिक सद्भावना को पूर्व में ही बहुत क्षति पहुँच चुकी है। समय व परिवेश बदलने के बावजूद आज भी लोग पूर्व की कड़वाहट, गलतियों एवं कट्टरपंथियों के अनैतिक विचारों का अनुकरण करने से नहीं चूकते। आज भी हमें कहीं कहीं अवांछित कृत्य व व्यवहार नजर आ ही जाते हैं, जो समाज की फिजा बिगाड़ने में अहम भूमिका का निर्वहन करते हैं। अनजाने में किए गए अधार्मिक कृत्यों को क्षमा करना माननीय गुण है, लेकिन जानबूझकर अनैतिक व अधार्मिक कृत्य कभी उचित नहीं हो सकते।

यह सभी जानते हैं कि हमारे सनातन धर्म में मूर्ति पूजा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। गाय को माता का दर्जा दिया गया है और उसकी पूजा की जाती है। ईश्वर का नाम श्रद्धा, आदर और पवित्रता के साथ लिया जाता है, बावजूद इसके यदि हमारे देवी-देवताओं राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा, लक्ष्मी आदि के नाम पर मटन शॉप खोले जाएँ, भगवान राम के नाम पर जूते चप्पलों की दुकान खोली जाए। जूते-चप्पलों पर गणेश जी अथवा अन्य देवी-देवताओं के चित्रों को छापा जाए, तब यह हिंदू धर्मावलंबियों के लिए निश्चित रूप से आपत्तिजनक बात है। लक्ष्मी के चित्र वाले पटाखे, जिनके फूटने पर उनके चिथड़े बिखरें और उनके पवित्र चित्रों को हमारे पैर रौंदें, वाकई कष्टप्रद है। अन्य देशों में भले ही गौ-मांस खाया जाता है, लेकिन आपके सामने ही माँ का दर्जा प्राप्त गाय का कत्ल किया जाए तो आत्मा आहत होगी ही।

आजकल ऐसा देखा गया है कि दुर्भावना अथवा स्वार्थवश हिंदु देवालयों के निकट मटन, शराब, बीयर बार खोल दिए जाते हैं। इसी प्रकार सद्भावना का वातवरण बिगाड़ने तथा अशांति फैलाने के उद्देश्य से देवालयों के नज़दीक अन्य धर्मावलंबियों द्वारा अपने प्रार्थना स्थलों का निर्माण करा दिया जाता है। पूजाघरों में जहाँ शांति, साधना, एकाग्रता आदि की महती आवश्यकता होती है, यह जानते हुए भी कुछ असामाजिक प्रवृत्ति के लोग इन स्थलों के पास ध्वनि विस्तारकों, विभिन्न व्यक्तिगत, सामाजिक, सांस्कृतिक, सांगीतिक तथा अन्य तरह के कार्यक्रमों द्वारा अशांति, अव्यवस्था एवं शोरगुल किया जाता है, ऐसी बातें भी अक्सर प्रकाश में आती रहती हैं। शरारती तत्त्वों द्वारा मूर्तियों व देवालयों को खंडित करने, तोड़फोड़ करने, अपवित्र करने आदि की घटनाएँ अक्सर देखने और सुनने में आती रहती हैं। विघ्नसंतोषियों द्वारा पूजाघरों में मांस, वर्जित सामग्री, अपवित्र सामग्री आदि फेंकने तथा धर्म स्थलों में मारपीट, दंगे-फसाद की वारदातें भी यदा-कदा दिखाई दे जाती हैं। चोर, झूठ बोलने वाले, दारूखोरों द्वारा भी मूर्तियों, दानपेटियों व देवी-देवताओं के आभूषणों की चोरी के मामले भी देखे जाते हैं। ये कृत्य किसी भी धर्मावलम्बी द्वारा किए जाएँ शर्मनाक व अधार्मिक ही कहलाएँगे।

आजकल देखा गया है कि कुछ लोग सार्वजनिक मंचों से देवी-देवताओं का, उनके स्वरूप, उनके कार्यों आदि का उल्लेख करते हुए उनका माखौल उड़ाते हैं। उन पर अशोभनीय टिप्पणियाँ करते हैं। उन पर केंद्रित अमर्यादित चुटकुले सुनाते हैं। प्रहसन, मंचन, चलचित्रों तक में धार्मिक आख्यानों को तोड़-मरोड़ कर हमारी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाले निंदनीय दृश्य प्रस्तुत किए जाते हैं, जो किसी भी तरह से उचित नहीं हैं। हमें कष्ट तो तब होता है जब श्रोतागण, पाठक अथवा दर्शक बजाय विरोध करने के उन बातों पर मजा लेते हैं, जबकि होना यह चाहिए कि उनका विरोध किया जाए और उन गतिविधियों को तत्काल प्रभाव से बंद किया जाए जो हमारी धार्मिक भावनाओं को आहत करते हैं। यहाँ यह बात भी उल्लेखनीय है कि ये चतुर-चालाक लोग कानून एवं तर्कों का हवाला देते हुए इन सभी बातों को सही सिद्ध करने की भरपूर कोशिश करते हैं। वहीं कानूनविद कानून के वशीभूत होते हैं और कानून की मंशा का ध्यान में न रखने हेतु विवश रहते हैं। कानून के शब्द हमारे संविधान में पत्थर की लकीर जैसे हैं। ऐसे कानूनों की आड़ में ही अनगिनत अपराध और अनैतिक कार्य खुलेआम किए जाते हैं और आम आदमी मुँह ताकता रह जाता है। स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के नाम पर कानूनों की भावना के विपरीत लोगों का अनर्गल प्रलाप मानवता के लिए कदापि उचित नहीं है हो सकता।

हम सभी जानते हैं कि आज से सौ दो सौ साल पूर्व जो बातें समाज में मान्य थीं, वर्तमान के समाज ने उन्हीं बातों को अमान्य कर दिया है, इसलिए युग, समय और बदलते परिवेश के चलते तत्कालीन धर्मग्रंथों में लिखी गईं उन बातों का विरोध भी तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि हम आज के रचयिता से तो रूबरू हो सकते हैं, लेकिन प्राचीन ग्रंथों के रचयिताओं ने तो उन्हीं बातों का उल्लेख किया है, जो उस समय प्रचलन में रहीं और समाज में जिन्हें मान्यता प्राप्त थी। इसी तरह संयुक्त परिवार, वर्णप्रथा, जातिगत कर्म, छूत-अछूत भी है, जिन्हें आज नकारा जा चुका है। अब तो लिंगभेद, खून के रिश्ते, त्याग, समर्पण, पड़ोसी-धर्म, सच्चाई, न्याय, शिष्टाचार सभी कुछ अवसरवादिता पर आधारित हो गए हैं।

आज के जमाने में पिछड़े क्षेत्रों व ख़ासतौर पर अशिक्षित लोगों को धन, नौकरी, छोकरी व विभिन्न तरह से मदद के नाम पर बरगलाया जाकर धर्मांतरण कराया जाने लगा है। ये बातें अक्सर समाचारों में आती रहती हैं और इनकी सत्यता भी उजागर हो चुकी है। कुछ अन्य धर्मों के युवक छद्म हिंदु नाम रख लेते हैं और हिंदु लड़कियों को सतरंगी सपने दिखाकर उनसे विवाह ही इसलिए करते हैं कि उनके धर्मावलंबियों का दायरा बढ़े। बाकायदा इसके लिए उन्हें उनके संगठनों से पैसा भी प्राप्त होता है, ऐसा सुना गया है। यह भी देखा गया है कि दूसरे धर्मावलंबी तरह-तरह से धार्मिक परचे निकालते हैं,जो उनके धर्म को श्रेष्ठ बताते हुए उस धर्म को अपनाने की बात की जाती है। अपने सामुदायिक भवनों, शिक्षालयों व धार्मिक स्थानों पर ऐसे कार्यों हेतु प्रशिक्षण भी दिया जाता है। कानून को ठेंगा दिखाकर हमारी आँखों के सामने सब कुछ होता रहता है। अपने धर्म की आड़ में दूसरे धर्म की आलोचना से आज की पीढ़ी को दिग्भ्रमित किया जाना चिंताजनक विषय बन गया है।

इस तरह हम देखते हैं कि जब आज के प्रगतिशील युग में नवयुवक देश-विदेश में अपने बुद्धि-कौशल से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर रहे हैं। उन्हें अपनी, अपने परिवार व अपने देश की प्रगति का जुनून सवार है। आज के परिवेश में कहा जाए कि जब से युवा पीढ़ी देश और धर्म से ऊपर उठकर अपना अस्तित्व बनाने में लगी है, तब उसी पीढ़ी को कुछ धूर्त, आतताई, कट्टरपंथी और अवसरवादी लोग दिग्भ्रमित करें यह कदापि बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। सर्वधर्म-समभाव की भावना को जन-जन में जगाना चाहिए। सभी धर्मों के लोगों को अन्य धर्मों का सम्मान करना चाहिए। दूसरी ओर अराजक तत्त्वों को भी इतना भान होना चाहिए कि आज के बदलते समय में उनके कृत्य अब ज्यादा प्रभावकारी सिद्ध नहीं हो पाएँगे। हमें अपने, अपने परिवार, अपने समाज व अपने देश के लिए ईमानदार इंसान बनना होगा। हम किसी भी धर्म के हों, हमारे आदर्श संस्कार, हमारी आदर्श शिक्षा तथा प्रेम भाईचारे का भाव ही समाज व देश में शांति का वातावरण निर्मित कर सकेगा। धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना किसी भी धर्म के लिए उचित नहीं है। यह अपराध से कम नहीं है, इसका बंद होना ही हम सभी के हित में है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

दिनांक: 6 जनवरी 2022

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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विजय तिवारी " किसलय "

आलेख प्रकाशन पर आभार आपका अग्रज।
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