श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “टीमों का गठन”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
किसी भी आयोजन में दो टीमें गठित होती हैं, एक तो जी जान से आयोजन की सफलता हेतु परिश्रम करती है, और दूसरी उसे कैसे असफल किया जावे इसमें अपना दिन-रात लगा देती है। तरह-तरह की तैयारियों के बीच वाद-विवाद का दौर भी आता है, जो मुखिया के बीच बचाव के बाद ही रुकता है।
वैसे जब तक कोई झगड़ा न हो तो कार्यक्रम कुछ अधूरा सा लगता है। आरोप-प्रत्यारोप के बाद ही नए-नए मुद्दे सामने आते हैं, जो आगे बढ़ने का रास्ता दिखाते हैं। ऐसा ही कुछ एक कार्यक्रम में दिखाई दे रहा है। जो भी सही बात समझाने की कोशिश करता उसे फूफा की उपाधि देकर किनारे बैठा दिया जाता। अब समझाइश लाल जी भी इस सबसे दूरी बनाए हुए हैं। एक तरफा झुकाव लोगों के सोचने समझने की शक्ति को मिटा देता है। पहले से ही हवा का रुख समझकर वे आगे बढ़ चले थे। दरसल कोई भी मौका चूकने से बचने हेतु सजगता बहुत जरूरी होती है। अपना उल्लू सीधा करते ही साथ छोड़कर नजरें चुराने की कला के सभी कायल होते हैं। जिसे देखिए वही अपना दमखम दिखाने की होड़ में मूल विचारधारा से दूर होता जा रहा है। बस रैलियों की भीड़ से ही कोई परिणाम निकलना भी तो जायज नहीं है।
पहले ओपिनियन पोल निष्पक्ष होते थे किंतु आजकल वो भी गोदी मीडिया की भेंट चढ़ चुके हैं। मीडिया के बढ़ते प्रभाव व वर्चुअल रैली ने सबकी बैण्ड बजाकर रख दी है। सब कुछ प्रायोजित होने लगा है, लोगों के मनोमस्तिष्क को पढ़कर उसे अपने अनुसार ढालने में हर कोई जी जान से जुटा है। विकास का मुद्दा केवल घोषणा पत्र की शोभा बन कर रह गया है। असली जंग तो जाति, धर्म, अल्पसंख्यक वर्ग पर सिमट रही है। मानवता तो कहीं दूर-दूर तक भी नजर नहीं आती है।
लोगों को सारी जानकारी वायरल वीडियो द्वारा होती है। इसमें कितना सच है इसकी गारंटी लेने वाला कोई नहीं है। सभी सुरक्षित सीट से लड़कर ही अपनी ताकत दिखाना चाहते हैं। अचानक से किस सीट पर कौन खड़ा होगा पता चलता है, लोग अपना बोरिया बिस्तर समेट के दूसरे खेमे के द्वारे पर पहुँच जाते हैं। वास्तव में अनिश्चितता का सही उदाहरण तो राजनीति में ही दिखाई देता है। यहाँ आखिरी समय तक अपने दल का पता नहीं चलता है। खैर कुछ भी हो टिकट टीम गठन का हिस्सा बनकर उसका किस्सा वाचना सचमुच दिलचस्प ही रहा है।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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