हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 3 – विशाखा की नज़र से ☆ सीख ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले
श्रीमति विशाखा मुलमुले
(हम श्रीमती विशाखा मुलमुले जी के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने ई-अभिव्यक्ति के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना सीख . अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 3 – विशाखा की नज़र से ☆
☆ सीख ☆
उसका लिखा जिया जाए
या खुद लिखा जाए
अपने कर्म समझे जाए
या हाथ दिखाया जाए
घूमते ग्रह, तारों, नक्षत्रों को मनाया जाए
या सीधा चला जाए
कैसे जिया जाए ?
क्योंकि जी तो वो चींटी भी रही है
कणों से कोना भर रही है
अंडे सिर माथे ले घूम रही है
बस्तियाँ नई गढ़ रही है
जबकि अगला पल उसे मालूम नही
जिसकी उसे परवाह नही
उससे दुगुने, तिगुने, कई गुनो की फ़ौज खड़ी है
संघर्षो की लंबी लड़ी है
देखो वह जीवट बड़ी है
बस बढ़ती चली है
उसने सिर उठा के कभी देखा नही
चाँद, तारों से पूछा नही
अंधियारे, उजियारे की फ़िक्र नही
थकान का भी जिक्र नही
कोई रविवार नहीं
बस जिंदा, जूनून और जगना.
© विशाखा मुलमुले
पुणे, महाराष्ट्र