श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 123 ☆ अहम् और अहंकार..(3) ☆
हमारी संस्कृति का घोष है-‘अहं ब्रह्मास्मि।’ मोटे तौर पर इसका अर्थ ‘मैं स्वयम् ब्रह्म हूँ’, माना जाता है। ब्रह्म याने अपना भाग्य खुद लिखने में समर्थ। ध्यान देनेवाली बात है कि अहं को ब्रह्म कहा गया, न कि अहंकार को। अहम् की विशेषता है कि वह अकेला होता है। कठिन स्थितियों से घिरा व्यक्ति हर तरफ से हारकर अंत में धीरोचित्त होकर अपने आप से संवाद करता है। कोई दूसरा व्यक्ति कोई बात समझाये तो अनेक बार हम उत्तर भी नहीं देते, डायलॉग (जिसमें दो लोगों में बातचीत हो), मोनोलॉग (स्वगत) हो जाता है। अपने आप से संवाद करने का आनंद ये है कि प्रश्नकर्ता और उत्तर देनेवाला एक ही है। जो चेला, वही गुरु। अद्वैत का चरमोत्कर्ष है स्व-संवाद। स्व-संवाद का फलित है- अपने अहम् के प्रति विश्वास का पुनर्जागरण। यह पुनर्जागरण व्यक्ति के भीतर साहस भरता है। बिना किसी को साथ लिए वह एकाकी से समूह हो जाता है। समूह होने का अर्थ है, अपने विराट रूप का दर्शन खुद करना। वैसा ही विराट रूप, जैसा श्रीकृष्ण ने महाभारत में पार्थ को दिखाया था। सहस्त्रों हाथ, सहस्त्रों पैर, सहस्त्रों मुख! अदम्य जिजीविषा से संचारित होकर लघु से प्रभु होकर हुंकार भरकर वह संकट के सामने सीना तानकर खड़ा हो जाता है। संकट तो मूलरूप से भीरू प्रवृत्ति के ही होते ही हैैं। वे तब तक ही व्यक्ति के आगे खड़े होते हैं, जब तक व्यक्ति सामना करने के लिए उनके आगे खड़ा नहीं होता। मुकाबले के लिए व्यक्ति के सामने खड़े होते ही संकट पलायन कर जाते हैं। ये है अहम् की शक्ति अर्थात् ‘अहं ब्रह्मास्मि।’
अहंकार की स्थिति इसके विरुद्ध है। अहंकार के लिए व्यक्ति, दूसरों से अपनी तुलना करता है। तुलना के लिए दूसरे याने समूह की आवश्यकता है। ‘मैं बाकियों से बेहतर हूँ , बाकियों से आगे हूँ, बाकियों से अधिक ज्ञानी हूँ ’ का भाव दंभ का कारक बनता है। ये ‘बाकी’ कौन हैं? कितने बाकियों को जानता है वह? जितनी दूर तक देख पाता है, उतने ही बाकियों से तुलना करता है। निरंतर ‘नारायण-नारायण’ का जाप करनेवाले नारदमुनि ने बाकियों से अपनी तुलना की। ‘नारायण का जितना जाप मैं करता हूँ, उतना ब्रह्मांड में कोई नहीं करता। मैं भगवान का सबसे बड़ा भक्त हूँ।’ अहंकार पनपा। नारायण से पूछा-‘आपका सबसे बड़ा भक्त कौन है?’ नारायण मंद-मंद हँसे और पृथ्वी के एक कृषक का नाम लिया। अपमानित और झल्लाये नारद ने किसान के यहाँ आकर देखा तो उनका माथा चकरा गया। किसान सुबह खेत पर जाते समय दो बार नारायण का नाम लेता और संध्या समय लौटकर दो बार जपता। ज़रूर प्रभु को गलतफहमी हुई है। नारायणधाम पहुँचे तो प्रभु ने कुछ कहने-सुनने का अवसर दिये बिना ही ऊपर तक दूध से लबालब भरा हुआ एक कटोरा थमा दिया और कहा, ‘नारद इसे शीघ्रतिशीघ्र कैलाश पर महादेव को दे आओ, ध्यान रहे दूध की एक बूँद भी न छलके अन्यथा महादेव के कोप का भाजन होना पड़ेगा।’ पूरे रास्ते नारद संभलकर चले। दूध पर ध्यान इतना कि जन्मांतरों से चला आ रहा नारायण का जाप भी छूट गया।
अहंकार समाप्त हुआ,‘..मैं दूध पर ध्यान रखने भर के लिए नारायण को भूल गया, पर वह किसान तो गर्मी-सर्दी-बारिश, सुख, दुख हर स्थिति में सुबह-शाम प्रभु का स्मरण नहीं भूलता, वह श्रेष्ठ है।’ इसलिए कहा कि जितना दिखता है, वह अंतिम नहीं है।
चौरासी लाख योनियों के असंख्य प्राणी, उनके अनगिनत गुण, हरेक का अपना ज्ञान, उनकी तुलना में हम कहाँ हैं? देखने को दृष्टि में बदलेेंगे तो अहंकार, आकार को फेंक कर निष्पाप, अबोध बालक -सा गोद में खेलने लगेगा। व्यक्ति यदि अपने अहम् में समाज को अंतर्निहित कर ले तो वह महानायक बन जाता है। वह अपना उद्धार तो करता ही है, समाज के उद्धार का भी माध्यम बन जाता है। ध्यान देनेवाली बात है कि अंतर्निहित करना और आकार देना अलग-अलग है। जैसे गर्भिणी शिशु को अंतर्निहित रखती है, वैसी भावना यदि समष्टि को लेकर विकसित हो जाए तो समष्टि भी अपने जैसी ही दिखने लगती है। जैसी दृष्टि- वैसी सृष्टि। प्रकृति का कोई भी कार्यकलाप एकांगी नहीं होता, हर क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्य होती है। आप जिस भाव से सृष्टि को देखेंगे, वही भाव सृष्टि आपको लौटायेगी। अर्थात् सृष्टि आँख की पुतलियों में समाई हुई है। अहंकार का ऐनक हटाकर, अहम् का अंजान डालकर सृष्टि देखें। ‘ लाली मेरे लाल की जित देखूँ, तित लाल, लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।’ भान रहे कि अहम् और अहंकार के बीच अदृश्य-सी पतली रेखा है। अहम् जीवन धन्यता का चालक है जबकि अहंकार विनाश का वाहक है। इति।
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
अहम् और अहंकार के मध्य की अदृश्य भीनी सी रेखा का यदि मानव ध्यान रखें तो कभी विनाश की ओर कदम न बढ़ाये।आंखें खोलने वाला आलेख।
इतनी सुंदर संवाद शैली में रचित यह रथना आत्मिक उन्नति का सोपान है, एक दृष्टि से सृष्टि का सार है।रना का अंतिम वाक्य निष्कर्ष स्वरूप प्रतिपादित हुआ है रचनाकार – अहम् जीवन धन्यता का चालक है…
अहंकार विनाश का वाहक …. शब्दातीत परिभाषा …. अभिवादन गुरु