हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #15 – मॉं-बाप का साया ☆ – श्री संजय भारद्वाज
श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
(इस आलेख का अंग्रेजी भावानुवाद आज के ही अंक में ☆ Parent’s shadow ☆ शीर्षक से प्रकाशित किया गया है. इसअतिसुन्दर भावानुवाद के लिए हम कॅप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी हैं. )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 15☆
☆ मॉं-बाप का साया☆
प्रातः भ्रमण के बाद पार्क में कुछ देर व्यायाम करने बैठा। व्यायाम के एक चरण में दृष्टि आकाश की ओर उठाई। जिन पेड़ों के तनों के पास बैठकर व्यायाम करता हूँ, उनकी ऊँचाई देखकर आँखें फटी की फटी रह गईं। लगभग 70 से 80 फीट ऊँचे विशाल पेड़ एवम् उनकी घनी छाया। हल्की-सी ठंड और शांत वातावरण विचार के लिए पोषक बने। सोचा, माता-पिता भी पेड़ की तरह ही होते हैं न! हम उन्हें उतना ही देख पाते हैं जितना पेड़ के तने को। तना प्रायः हमें ठूँठ-सा ही लगता है। अनुभूत होती इस छाया को समझने के लिए आँखें फैलाकर ऊँचे, बहुत ऊँचे देखना होता है। हमें छत्रछाया देने के लिए निरंतर सूरज की ओर बढ़ते और धूप को ललकारते पत्तों का अखण्ड संघर्ष समझना होता है। दुर्भाग्य से जब कभी छाया समाप्त हो जाती है तब हम जान पाते हैं मॉं-बाप का साया माथे पर होने का महत्व!
… अनुभव हुआ हम इतने क्षुद्र हैं कि लंबे समय तक गरदन ऊँची रखकर इन पेड़ों को निहार भी नहीं सकते, गरदन दुखने लगती है।
….ईश्वर सब पर यह साया और उसकी छाया लम्बे समय तक बनाए रखे।…तने को नमन कर लौट आया घर अपनी माँ के साये में।
© संजय भारद्वाज, पुणे
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603