श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 108 ☆

☆ ‌आलेख – जन्म, जीवन और  मृत्यु ☆

‌जन्म, जीवन और मृत्यु,श्रीमदभगवद्गगीता के भाष्य के अनुसार आत्मा अजर-अमर है।

तथा श्री रामचरितमानस के अनुसार

ईश्वर अंश जीव अविनाशी।

चेतन अमल सहज सुख राशि ।।

अर्थात्

आत्मा का स्वरूप ईश्वरीय अंश से निर्मित चेतना युक्त मल रहित सहज सुख राशि है। यह‌  जन्म के पहले  भी अस्तित्व में  थी और मृत्यु के पश्चात भी रहेगी, इसका अस्तित्व कभी विलीन नहीं होता।  जन्म और मृत्यु की दुखद परिस्थितियों से गुजरने के बाद इस योनि गत शरीर  का ही प्रकटीकरण और विनाश होता है । जन्म और मृत्यु के बीच का बिताया गया समय ही  जीवन कहा जाता है। हमारे हिन्दू धर्मदर्शन के संस्कारों के अनुसार जन्म से पहले गर्भाधान संस्कार से जीव की उत्पत्ति प्रक्रिया आरंभ होती है। पंच तत्व के मिलने पर  मां के गर्भ में पिंड बनता है और उस पिंड में ईश्वर अंश आत्मा के संयोग से जीव स्थूल रूप में प्रकट होता है तथा वह गर्भाधान संस्कार से अनभिज्ञ होता है। स्थूल शरीर से आत्मा का बिछोह, प्राण चेतना का समापन ही मृत्यु है।

मृत्यु के पश्चात अंत्येष्टि संस्कार पर सोडष संस्कारों का अंत होता है। समापन होता है जन्म लेने की क्रिया के पूर्ण होने में नौ माह से अधिक समय लगता है इस समय  मां के पेट में  जीव की सुरक्षा का दायित्व ईश्वर निभाता है

प्राकृतिक रूप से  पालन पोषण करता है जब यह प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है तब यह जीव स्थूल स्वरूप धारण कर सशरीर जन्म लेता है  इस क्रिया को जन्म लेना कहते हैं  ।

जन्मना जायते शूद्र:

इस परिभाषा के अनुसार जन्म से  सभी शूद्र हैं लेकिन समाज के विकसित होने पर जो प्रक्रिया  समाज को सुव्यवस्थित ढंग चलाने के लिए अपनाई गई उसे ही वर्ण व्यवस्था का नाम दिया जिसकी परिकल्पना हमारे मनीषियों ने सृष्टि कर्ता ब्रह्मा के शरीर से माना है,  जिसके चार वर्ण हैं ‌ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र। किन्तु, वर्ण क्रम के प्रतिनिधित्व के लिए गुण और कर्म के सिद्धान्त को अपनाया गया। मानव योनि में जन्म लेने वाले मनुष्य ने जैसा कर्म किया वैसे ही क्रम के अनुसार जीवन शैली अपनाकर कर उसी वर्ण का प्रतिनिधित्व किया, लेकिन बदलते समय के अनुसार  यही व्यस्था कालांतर में जातिवाद में परिवर्तित हो गई।  जिसके चलते ऊंच, नीच, छोटा-बड़ा, छुआ छूत की खाई पैदा हुई जिसने हिंदू धर्म को बहुत बड़ा नुकसान पहुंचाया और सामाजिक समरसता में बाधक बनी, जब कि वर्ण व्यवस्था में एक वर्ण से दूसरे वर्ण में कर्म के अनुसार सदस्यता ग्रहण करने की इजाजत थी ।

जीवन – जन्म और मृत्यु के बीच के बिताए गये पलों (समय) को जीवन चक्र कहा जाता है। जीवन काल में इस स्थूल शरीर की संरचना उम्र के अनुसार, बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था तथा बुढ़ापे में बदलती  रहती है जब कि शरीर में व्याप्त आत्मा का स्वरूप  सदैव एक सा रहता है। गर्भाधान संस्कार से अंतेष्टि संस्कारों के बीच सोडष संस्कार  सामाजिक जीवन  के आदर्श आचार संहिता के अनुसार कर्मकांड आधारित है, जिन्हें मानव  अपने आचरण में धारण कर जीवन जीता है।

संस्कारों से ओत-प्रोत जीवन शैली मानव समाज को गरिमा प्रदान करती है संस्कारविहीन समाज का विकास नहीं होता तथा तमाम विद्रूपता दिखाई देती है, तथा मानव जीवन त्रासद हो जाता है।

व्यक्ति सोडष संस्कारों को जीवन में आत्मसात कर के ही आदर्श समाज की संरचना करता है, संस्कार विहीन समाज पथभ्रष्ट होकर छिन्न भिन्न हो जाता है।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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