श्री जय प्रकाश पाण्डेय
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य ।“लोक-लुभावन बजट”।)
☆ व्यंग्य # 123 ☆ “लोक-लुभावन बजट” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
“लोक-लुभावन बजट”
जनता का बजट है, जनता के लिए बजट है,पर सरकार कह रही है कि ये फलांने साब का लोकलुभावन बजट है।खूब सारे चेहरों को बजट के बहाने साब की चमचागिरी करने का चैनल मौका दे रहे हैं। विपक्ष विरोध कर रहा है या विपक्ष अपना धर्म निभा रहा है ये तो पता नहीं, पर जनता को कुछ लोग बता रहे हैैं कि विपक्ष भी होता है,जो बजट के समय बोलता है।
छकौड़ी दो दिन से खाद लेने की लाइन में लगा रहा खाद नहीं मिल पायी तो भूखा प्यासा टीवी पर बजट देखने लगा। उसने देखा एक चमचमाते माॅल में बजट बाजार ।इस बजट में खाद मिलने की उम्मीद। उसने देखा बेरोजगार बेटे के लिए 60लाख रोजगार का सपना। उसने देखा माल के दुकानदार निकल निकल कर हंस रहे हैं, एक सजी धजी लिपिस्टिक लगी एंकर चिल्ला रही है,बजट में गांव की आत्मा दिख रही है, माॅल के कुछ लोग तालियां बजाने लगे।
छकौड़ी का भूखा पेट गुड़गुड़ाहट पैदा कर रहा है, गैस बन रही है, माॅल में जो दिख रहा उसे देखना मजबूरी है। एकदम से चैनल पलटी मार कर इधर लंच के दौरान बजट पर चर्चा पर आकर रुकता है, पार्टी के बड़े पेट वाले और कुछ बिगड़े बिकाऊ पत्रकार भी बैठे हैं, लाल परिधान में लाल लाल ओंठ वाली बजट के बारे में बता रही है, सबके सामने थालियां सज गयीं हैं, थाली में बारह तेरह कटोरियों में पानी वाली सब्जियां डालीं जा रहीं हैं, दो दुबले-पतले खाना परोसने वाले मास्क लगाकर खाना परोस रहे हैं, इतने सारे बड़े पेट वाले बिना मास्क लगाए, स्वादिष्ट व्यंजन सूंघ रहे हैं, बजट पर चर्चा चल रही है, कुछ लोग खाने के साथ बजट खाने पर उतारू हैं। कोरोना दूर खड़ा हंस रहा है।
भूखा प्यासा छकौड़ी जीभ चाटते हुए सब देख रहा है। साब बार बार प्रगट होकर कहते हैं बजट की आत्मा में गांव है और गांव के किसान के लिए ही बजट है। बजट तुम्हें बधाई। बजट तुम्हें सुनने में खूब मजा आया, अंग अंग रोम रोम रोमांचित हो गया, अंग अंग कान बन गए, सपनों के गांव में उम्मीद के झूले झूलने का अलग सुख है।
© जय प्रकाश पाण्डेय
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शानदार चुभता हुआ व्यंग