श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है अपने कर्मफलों से जीवन में पश्चात् पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “ *अभिलाषा *”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 112 ☆
लघु कथा ? *अभिलाषा *?
कामता प्रसाद अस्पताल के चक्कर लगा लगा कर थक चुके थे। नौकरी भी जाती रही। भाई भतीजे ने अपना मुंह मोड़ लिया था। पत्नी बेचारी दिनभर उनके साथ लगी रहती।
कामता प्रसाद को जीने की बहुत इच्छा थी। मन में कई सवाल थे, जिनका उनके पास कोई उत्तर नहीं था। जीवन की घटनाओं को लेकर बेटी को बोझ समझ उसे अनाथालय में डाल बेटे की चाहत से सदा सदा के लिए कुछ कारणवश संतान विहीन हो चुके थे। मां ने बड़े प्यार से उस समय उसे अभिलाषा नाम रख छोड़ा था।
कभी-कभी वह अनजान बन उसे अन्य बच्चों की तरह मिल-देखकर, कुछ देकर चली आती। जिसकी कामता प्रसाद को खबर नहीं थी।
दिल पर पत्थर रखकर जीवन को जी रही थी। समय पंख लगा कर चला। मेडिकल स्टाफ नर्स बन चुकी थी अभिलाषा। और बार-बार इस औरत को अपने पास आकर देखने से उसके मन में भी चाहत और एक अपनेपन की भावना बढ़ चुकी थी। पर समझ नहीं पाई कि वह उसकी अपनी मां हैं।
कई वर्षों बाद आज अचानक उसके हॉस्टल के सामने रोते रोते बेसुध हो आवाज लगा रही थी…. अभिलाषा, अभिलाषा। वार्डन कहा जो इच्छा दीदी है मुझे भुला दो।
मां ने बेटी को कसकर गले लगा लिया और बोली… आज पिता तुल्य इंसान का जीवन तुम्हारे हाथों है बचाओ बेटी। इच्छा हैरानी से बोली… बताइए तो सही क्या बात है। मां ने सारी कहानी एक ही सांस में रोते हुए कह सुनाई और बोली दोनों किडनी खराब हो चुकी है और जीने की बहुत ही इच्छा है।
कोई भी किडनी देने को तैयार नहीं है और ना हमारी सामर्थ है। तुम ही कर सकती हो। सांत्वना देकर उसे जाने को कह वह सोचने लगी।
डॉक्टर से कार्यवाही शुरु कर अपनी ही एक किडनी देने को तैयार हो गई। ये जीवन तो पिता जी ने पहले ही खतम कर चुके हैं। आपरेशन के बाद एक बेड पर पिताजी और दूसरे बेड पर बेटी। ठीक होने पर कामता प्रसाद ने इच्छा से कहा…. मेरे जीवन की अभिलाषा बनकर क्या मुझे माफ नहीं कर सकोगी बेटी??
अभिलाषा अनजान बन अपना रास्ता चलते बनी जैसे कभी कुछ हुआ और देखा सुना ही नहीं।
कामता प्रसाद के आंखों से खून के आंसू बहने लगे क्या?? ये जीना भी कोई जीना होगा?
© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈