श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “लेखा जोखा… ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
सीरियल देखते हुए बीच ब्रेक में कितने सारे कार्य हो जाते हैं। 20- 22 मिनट के अंतराल में 4 ब्रेक होने से सोचने – समझने का मौका मिलता है। दिमाग जो सीरियल में घुसा रहता है अचानक से फिर धरातल में लौटता है। सोचिए अगर ये ब्रेक न होता तो हम पूरी तरह से उसी समस्या में डूब कर मनोरोगी बन चुके होते। अब समझ में आया कि आधे घण्टे की पढ़ाई के बाद ब्रेक क्यों लेना चाहिए। कोई भी कार्य हो समय- समय पर रिलेक्स करना ही चाहिए।
रोड में तरह- तरह के ब्रेकर इसीलिए बनाये जाते हैं ताकि भागती हुई गाड़ी कन्ट्रोल में रह सके। ऐसा ही कुछ इस बार के चुनावों में भी देखने को मिल रहा है किसी को पहली बार टिकट के रूप में ब्रेक मिल रहा है तो किसी का चुनावी करियर भी दाँव पर लगा हुआ है। उसे किसी भी सूची में टिकट नहीं दिया गया। वो बस बेसब्री से इंतजार किए जा रहा है कि शायद बाद में कोई लाभ मिलेगा। इस सबमें प्रत्याशी किस दल का नुमाइंदा है ये भी तय नहीं रहता है। दरसल टिकट ही उनके जीवन मूल्य व राष्ट्रवाद को तय करता है। इन सबमें मतदाता कहाँ खो जाता है , उसकी सारी योजनाओं व उम्मीदों में लगा हुआ ब्रेक कब दूर होगा, वर्चुअल रैली सुनने के लिए बैठी भीड़ बस इंतजार में रहती है कि मंत्री जी की वाणी में विराम लगे और वो वहाँ से उठकर अपने बैठने की कीमत व भोजन पा सके। दरसल लोगों को एकत्रित करके लाने का ये सिलसिला शुरू से ही चला आ रहा है।
सारे दौर के नामांकन के बाद भी जिनकी गाड़ी को गति नहीं मिलती है, वे राज्यसभा की ओर निगाह जमा लेते हैं आखिर उनकी सेवा का प्रतिफल तो मिलना ही चाहिए। लोग गठबंधन पर गठबंधन किए जा रहे हैं। मजे की बात इन चुनावों में विचारों के मूल्यों को प्रमुखता न देकर टिकट को वरीयता मिल रही है। इसी की कीमत पर मूल्यों का निर्धारण हो रहा है। मतदाता भी किसकी ओर से बोलें, किसके गुणगान करें ये उन्हें आखिरी समय पर ही पता चलेगा। कुछ भी कहें इस व्यवस्था ने मतदाताओं को जागरूक तो बना ही दिया है। अब उन्हें किस का बटन दबाना है, ये तो वक्त किस करवट बैठता है यही तय करेगा। वे तो चुनावी आंकड़ों के विश्लेषण पर नजर जमाए हुए हैं।
सकारात्मकता का यही लाभ होता है कि अवसरवादी भी अवसरों की तलाश में आखिरी दम तक एड़ी चोटी का जोर लगाने से नहीं चूकता है। कुछ भी कहें इस बार परिवार बाद, भाई – भतीजा बाद पर लगाम कसी है। उम्मीद है कि अगले चुनावों में जातिगत समीकरणों पर भी रोक लगेगी। हम सब बस मतदाता है ये चिंतन जिस दिन मतदाता करने लगेंगे उस दिन से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सही मायनों में जनजागरण शुरू होगा।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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