डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख दर्द की इंतहा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 121 ☆

☆ दर्द की इंतहा

‘दर्द को भी आधार कार्ड से जोड़ दो/ जिन्हें मिल गया है दोबारा ना मिले’ बहुत मार्मिक उद्गार क्योंकि दर्द हम-सफ़र है; सच्चा जीवन-साथी है, जिसका आदि अंत नहीं। ‘दु:ख तो अपना साथी है’ गीत की ये पंक्तियां मानव में आस्था व विश्वास जगाती हैं; मानव मन को ऊर्जस्वित व संचेतन करती है। वैसे तो रात्रि के पश्चात् भोर, अमावस्या के पश्चात् पूर्णिमा व दु:ख के पश्चात् सुख का आना निश्चित है; अवश्यंभावी है। सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं और एक के जाने के पश्चात् दूसरा दस्तक देता है।

समय निरंतर अबाध गति से चलता रहता है; कभी रुकता नहीं। सो! जो आया है अवश्य जाएगा। इसलिए ऐ मानव! तू किसी के आने पर ख़ुशी व जाने का मलाल मत कर। ‘कर्म गति अति न्यारी’ इसके मर्म को आज तक कोई नहीं जान पाया। परंतु यह तो निश्चित् है कि ‘जो जैसा करता, वैसा ही फल पाता’ के माध्यम से मानव को सदैव सत्कर्म करने की सीख दी गयी है।

अतीत कभी लौटता नहीं; भविष्य अनिश्चित् है।  परंतु वह सदैव वर्तमान के रूप में दस्तक देता है। वर्तमान ही शाश्वत् सत्य है, शिव है और सुंदर है। मानव को सदैव आज के महत्व को स्वीकारते हुए हर पल को ख़ुशी से जीना चाहिए। चारवॉक दर्शन में भी ‘खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ’ का संदेश निहित है। आज की युवा पीढ़ी भी इसी का अनुसरण कर रही है। शायद! इसलिए ‘वे यूज़ एंड थ्रो’, ‘लिव इन’ व ‘मी टू’ की अवधारणा के पक्षधर हैं। वे पुरातन जीवन मूल्यों को नकार चुके हैं, क्योंकि उनका दृष्टिकोण उपयोगितावादी है। वे सदैव वर्तमान में जीते हैं। संबंध-सरोकारों का उनके जीवन में कोई मूल्य नहीं तथा रिश्तों की अहमियत को भी वे नकारने लगे हैं, जिसका प्रतिफलन विकराल सामाजिक विसंगतियों के रूप में हमारे समक्ष है।

अमीर-गरीब की खाई सुरसा के मुख की भांति बढ़ती जा रही है और हमारा देश इंडिया व भारत दो रूपों में परिलक्षित हो रहा है। एक ओर मज़दूर, किसान व मध्यमवर्गीय लोग दिन-भर परिश्रम करने के पश्चात् दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते और आकाश की खुली छत के नीचे अपना जीवन बसर करने को विवश हैं। बाल श्रमिक शोषण व बाल यौन उत्पीड़न का घिनौना रूप हमारे समक्ष है। एक घंटे में पांच बच्चे दुष्कर्म का शिकार होते हैं; बहुत भयावह स्थिति  है। दूसरी ओर धनी लोग और अधिक धनी होते जा रहे हैं, जिनके पास असंख्य सुख-सुविधाएं हैं और वे निष्ठुर, संवेदनहीन, आत्मकेंद्रित व निपट स्वार्थी हैं। शायद! इसी कारण गरीब लोग दर्द को आधार-कार्ड से जोड़ने की ग़ुहार लगाते हैं, क्योंकि व्यक्ति छल-कपट से पुन: वे सुविधाएं प्राप्त नहीं कर सकता। उनके ज़हन में यह भाव दस्तक देता है कि यदि ऐसा हो जायेगा, तो उन्हें जीवन में पुन: दर्द प्राप्त नहीं होगा, क्योंकि वे अपने हिस्से का दर्द झेल चुके हैं। परंतु इस संसार में यह नियम लागू नहीं होता। भाग्य का लिखा कभी बदलता नहीं; वह अटूट होता है। सो! उन्हें इस तथ्य को सहर्ष क़ुबूल कर लेना चाहिए कि कृत-कर्मों का फल जन्म-जन्मांतर तक मानव के साथ-साथ चलता है और उसे अवश्य भोगना पड़ता है। इसलिए सुंदर भविष्य की प्राप्ति हेतू सदैव अच्छे कर्म करें, ताकि हमारा भविष्य उज्ज्वल हो सके।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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