डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘माँ सी …! ’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 87 ☆
☆ लघुकथा – बदलेगा बहुत कुछ ☆
शिक्षिका ने हिंदी की कक्षा में आज अनामिका की कविता ‘ बेजगह ‘ पढानी शुरू की –
अपनी जगह से गिरकर कहीं के नहीं रहते,
केश, औरतें और नाखून,
पहली कुछ पंक्तियों को पढते ही लडकियों के चेहरे के भाव बदलने लगे, लडकों पर कोई असर नहीं दिखा। कविता की आगे की पंक्तियाँ शिक्षिका पढती है –
लडकियां हवा, धूप, मिट्टी होती हैं,
उनका कोई घर नहीं होता।
शिक्षिका कविता के भाव समझाती जा रही थी। क्लास में बैठी लडकियां बैचैनी से एक – दूसरे की ओर देखने लगीं, लडके मुस्कुरा रहे थे। कविता आगे बढी –
कौन सी जगह होती है ऐसी
जो छूट जाने पर औरत हो जाती है कटे हुए नाखूनों,
कंघी में फँसकर बाहर आए केशों सी
एकदम बुहार दी जानेवाली।
एक लडकी ने प्रश्न पूछ्ने के लिए झट से हाथ उपर उठाया- मैडम ! बुहारना मतलब? जैसे हम घर में झाडू लगाकर कचरे को बाहर फेंक देते हैं, यही अर्थ है ना?
हाँ – शिक्षिका ने गंभीरता से उत्तर दिया।
एकदम से कई लडकियों के हाथ उपर उठे – किस जगह की बात कर रही हैं कवयित्री और औरत को कैसे बुहार दिया जाता है मैडम! वह तो इंसान है कूड़ा – कचरा थोडे ही है?
शिक्षिका को याद आई अपने आसपास की ना जाने कितनी औरतें, जिन्हें अलग – अलग कारण जताकर , बुहारकर घर से बाहर कर दिया गया था । किसी के मन-मस्तिष्क को बडे योजनाबद्ध तरीके से बुहारा गया था यह कहकर कि इस उम्र में हार्मोनल बदलाव के कारण पागल होती जा रही हो। वह जिंदा लाश सी घूमती है अपने घर में। तो कोई सशरीर अपने ही घर के बाहर बंद दरवाजे के पास खडी थी। उसे एक दिन पति ने बडी सहजता से कह दिया – तुम हमारे लायक नहीं हो, कोई और है तुमसे बेहतर हमारी जिंदगी में। ना जाने कितने किस्से, कितने जख्म, कितनी बेचैनियाँ —–
मैडम! बताइए ना – बच्चों की आवाज आई।
हाँ – हाँ, बताती हूँ। क्या कहे? यही कि सच ही तो लिखा है कवयित्री ने। नहीं – नहीं, इतना सच भी ठीक नहीं, बच्चियां ही हैं ये। पर झूठ भी तो नहीं बोल सकती। क्या करे, कह दे कि इसका उत्तर वह भी नहीं ढूंढ सकी है अब तक। तभी सोचते – सोचते उसके चेहरे पर मुस्कान दौड गई। वह बोली एक दूसरी कवयित्री की कविता की कुछ पंक्तियाँ सुनाती हूँ –
शीर्षक है – बदलेगा बहुत कुछ –
प्रश्न पुरुष – स्त्री या समाज का नहीं,
मानसिकता का है।
बात किसी की मानसिकता की हो,
जरूरी है कि स्त्री
अपनी सोच, अपनी मानसिकता बदले
बदलेगा बहुत कुछ, बहुत कुछ ।
घंटी बज गई थी।
© डॉ. ऋचा शर्मा
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