डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘महाकवि ‘उन्मत्त’ की शिष्या’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – महाकवि ‘उन्मत्त’ की शिष्या ☆
हमारे नगर के गौरव ‘उन्मत्त’ जी का दृढ़ विश्वास है कि ‘निराला’ के बाद अगर किसी कवि को महाकवि कहलाने का हक है तो वे स्वयं हैं,भले ही दुनिया इसे माने या न माने।दाढ़ी-मूँछ हमेशा सफाचट रखे और कंधों तक केश फैलाये ‘उन्मत्त’ जी हमेशा चिकने-चुपड़े बने रहते हैं।उनके वस्त्र हमेशा किसी डेटरजेंट का विज्ञापन लगते हैं।बढ़ती उम्र के साथ रंग बदलते बालों को वे सावधानी से ‘डाई’ करते रहते हैं।कोई बेअदब सफेद खूँटी सर उठाये तो तत्काल उसका सर कलम कर दिया जाता है।
घर-गृहस्थी को पत्नी के भरोसे छोड़ ‘उन्मत्त’ जी कवि-सम्मेलनों की शोभा बढ़ाने के लिए पूरे देश को नापते रहते हैं।उनके पास दस पंद्रह कविताएँ हैं, उन्हीं को हर कवि सम्मेलन में भुनाते रहते हैं। कई बार एक दो चमचों को श्रोताओं के बीच में बैठा देते हैं जो उन्हीं पुरानी कविताओं की फरमाइश करते रहते हैं और ‘उन्मत्त’ जी धर्मसंकट का भाव दिखाते उन्हीं को पढ़ते रहते हैं।
‘उन्मत्त’ जी के पास कई नवोदित कवि मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए आते रहते हैं। ऐसे ही एक दिन एक कवयित्री अपनी कविता की पोथी लिये सकुचती हुई आ गयीं। ‘उन्मत्त’ जी ने उनकी पोथी पलटी और पन्ने पलटने के साथ उनकी आँखें फैलती गयीं। फिर नवोदिता के मुख पर दृष्टि गड़ा कर बोले, ‘ आप तो असाधारण प्रतिभा की धनी हैं। अभी तक कहाँ छिपी थीं आप? आपको सही अवसर और मार्गदर्शन मिले तो आपके सामने बड़े-बड़े जीवित और दिवंगत कवि पानी भरेंगे। अपनी प्रतिभा को पहचानिए, उसकी कद्र कीजिए।’
फिर उन्होंने एक बार और कविताओं पर नज़र डालकर चिबुक पर तर्जनी रख कर कहा, ‘अद्भुत! अद्वितीय!’
नवोदिता प्रसन्नता से लाल हो गयीं। आखिर रत्न को पारखी मिला। ‘उन्मत्त’ जी बोले, ‘आपको यदि अपनी प्रतिभा के साथ न्याय करना हो तो मेरे संरक्षण में आ जाइए। मैं
आपको कवि- सम्मेलनों में ले जाकर कविता के शिखर पर स्थापित कर दूँगा।’
कवयित्री ने दबी ज़बान में घर-गृहस्थी की दिक्कतें बतायीं तो ‘उन्मत्त’ जी बोले, ‘यह घर-गिरस्ती प्रतिभा के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। कितनी महान प्रतिभाएँ घर-गिरस्ती में पिस कर असमय काल-कवलित हो गयीं। थोड़ा घर- गिरस्ती से तटस्थ हो जाइए। बड़े उद्देश्य के लिए छोटे उद्देश्यों का बलिदान करना पड़ता है।’
‘उन्मत्त’ जी ने उस दिन नवोदिता को ‘काव्य-कोकिला’ का उपनाम दे दिया। बोले, ‘मैं सुविधा के लिए आपको ‘कोकिला’ कह कर पुकारूँगा।’
‘उन्मत्त’ जी ने ‘कोकिला’ जी को एक और बहुमूल्य सलाह दी। कहा, ‘कवि- सम्मेलनों में सफलता के लिए कवयित्रियों को एक और पक्ष पर ध्यान देना चाहिए। थोड़ा अपने वस्त्राभूषण और शक्ल-सूरत पर ध्यान दें। बीच-बीच में ‘ब्यूटी पार्लर’ की मदद लेती रहें। कारण यह है कि श्रोता कवयित्रियों को कानों के बजाय आँखों से सुनते हैं। कवयित्री सुन्दर और युवा हो तो उसके एक-एक शब्द पर बिछ बिछ जाते हैं, घटिया से घटिया शेरों पर भी घंटों सर धुनते हैं। यह सौभाग्य कवियों को प्राप्त नहीं होता। हमारा एक एक शब्द ठोक बजाकर देखा जाता है।’
‘कोकिला’ जी घर लौटीं तो उनके पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। घर पहुँचने पर उन्हें अपना व्यापारी पति निहायत तुच्छ प्राणी नज़र आया। घर पहुँचते ही उन्होंने पति को निर्देश दिया कि उनके लिए तत्काल नई मेज़-कुर्सी खरीदी जाए ताकि उनकी साहित्य-साधना निर्बाध चल सके और जब वे मेज़-कुर्सी पर हों तब उन्हें यथासंभव ‘डिस्टर्ब’ न किया जाए।साथ ही उन्होंने पतिदेव से यह भी कह दिया कि खाना बनाने के लिए कोई बाई रख ली जाए ताकि उन्हें इन घटिया कामों में समय बर्बाद न करना पड़े।पतिदेव की समझ में नहीं आया कि उनकी अच्छी-भली पत्नी को अचानक कौन सी बीमारी लग गयी।
इसके बाद ‘उन्मत्त’ जी के साथ कवि- सम्मेलनों में ‘कोकिला’ जी अवतरित होने लगीं।बाहर के दौरे भी लगने लगे।देखते देखते ‘कोकिला’ जी कवयित्री के रूप में मशहूर हो गयीं।वे ‘उन्मत्त’ जी से ज़्यादा दाद बटोरती थीं।जल्दी ही उन्होंने ‘ज़र्रानवाज़ी, इरशाद, इनायत, तवज्जो, पेशेख़िदमत, मक़्ता, मतला, नवाज़िश, हौसलाअफज़ाई का शुक्रिया’ जैसे शब्द फर्राटे से बोलना और मंच पर घूम घूम कर माथे पर हाथ लगाकर श्रोताओं का शुक्रिया अदा करना सीख लिया।
अब बहुत से पुराने, पिटे हुए और कुछ नवोदित कवि ‘कोकिला’ जी के घर के चक्कर लगाने लगे थे।रोज़ ही उनके दरवाज़े पर दो चार कवि दाढ़ी खुजाते खड़े दिख जाते थे।शहर के बूढ़े, चुके हुए कवि उन्हें अपने संरक्षण में लेने और उन्हें मार्गदर्शन देने के लिए रोज़ फोन करते थे।
लोकल अखबार वाले उनके इंटरव्यू छाप चुके थे।हर इंटरव्यू में ‘कोकिला’ जी आहें भरकर कहती थीं, ‘मेरा हृदय एक अनजानी पीड़ा से भारी रहता है।संसार का कुछ अच्छा नहीं लगता।यह दुख क्या है और क्यों है यह मुझे नहीं मालूम।बस यह समझिए कि यही ग़म है अब मेरी ज़िन्दगी, इसे कैसे दिल से जुदा करूँ?मैं नीर भरी दुख की बदली।इसी दुख से मेरी कविता जन्म लेती है।इसी ने मुझे कवयित्री बनाया।’
‘उन्मत्त’ जी शहर के बाहर कवि- सम्मेलनों में ‘कोकिला’ जी को ले तो जाते थे लेकिन जो पैसा-टका मिलता था उसका हिसाब अपने पास रखते थे। थोड़ा बहुत प्रसाद रूप में उन्हें पकड़ा देते थे। पूछने पर कहते, ‘इस पैसे- टके के चक्कर से फिलहाल दूर रहो। पैसा प्रतिभा के लिए घुन के समान है। कविता के शिखर पर पहुँचना है तो पैसे के स्पर्श से बचो। ये फालतू काम मेरे लिए छोड़ दो। आप तो बस अपनी कविता को निखारने पर ध्यान दो।’
अब कवि-सम्मेलनों के आयोजक ‘कोकिला’ जी से अलग से संपर्क करने लगे थे। कहते, ‘आप ‘उन्मत्त’ जी के साथ ही क्यों आती हैं? हम आपको अलग से आमंत्रित करना चाहते हैं। ‘उन्मत्त’ जी हमेशा पैसे को लेकर बखेड़ा करते हैं।’
दो-तीन साल ऐसे ही उड़ गए। कवि-सम्मेलन, गोष्ठियाँ, अभिनन्दन, सम्मान। ‘कोकिला’ जी आकाश में उड़ती रहतीं। जब घर लौटतीं तो दो चार लोकल या बाहरी कवि टाँग हिलाते, दाढ़ी खुजाते, इन्तज़ार करते मिलते। घर- गिरस्ती की तरफ देखने की फुरसत नहीं थी।
एक दिन ‘कोकिला’ जी के पतिदेव आकर उनके पास बैठ गये। बोले, ‘कुछ दिनों से तुमसे बात करने की कोशिश कर रहा था लेकिन तुम्हें तो बात करने की भी फुरसत नहीं। तुम कवयित्री हो, बड़ा नाम हो गया है। मैं साधारण व्यापारी हूँ। मुझे लगने लगा है कि अब हमारे रास्ते अलग हो गए हैं। अकेले गृहस्थी का बोझ उठाते मेरे कंधे दुखने लगे हैं। मेरा विचार है कि हम स्वेच्छा से तलाक ले लें।’
‘कोकिला’ जी जैसे धरती पर धम्म से गिरीं। चेहरा उतर गया। घबरा कर बोलीं, ‘मुझे थोड़ा सोचने का वक्त दीजिए।’
दौड़ी-दौड़ी ‘उन्मत्त’ जी के पास पहुँचीं। ‘उन्मत्त’ जी ने सुना तो खुशी से नाचने लगे। नाचते हुए उल्लास में चिल्लाये, ‘मुक्ति पर्व! मुक्ति पर्व! बधाई ‘कोकिला’ जी। छुटकारा मिला। कवि की असली उड़ान तो वही है जिसमें बार-बार पीछे मुड़कर ना देखना पड़े।’ फिर ‘कोकिला’ जी का हाथ पकड़ कर बोले, ‘अब हम साहित्याकाश में साथ साथ निश्चिन्त उड़ान भरेंगे। टूट गई कारा। मैं कल ही आपके अलग रहने का इन्तज़ाम कर देता हूँ।’
‘कोकिला’ जी उनका हाथ झटक कर घर आ गयीं।
दो दिन तक वे घर से कहीं नहीं गयीं। दो दिन बाद वे स्थिर कदमों से आकर पति के पास बैठ गयीं, बोलीं, ‘मैंने आपकी बात पर विचार किया। मैं महसूस करती हूँ कि पिछले दो-तीन साल से मैं घर गृहस्थी की तरफ ध्यान नहीं दे पायी। कुछ बहकाने वाले भी मिल गये थे। लेकिन अब मैंने अपनी गलती समझ ली है। भविष्य में आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।’
उसके बाद वे जा कर ड्राइंग रूम में ऊँघ रहे कवियों से बोलीं, ‘अभी आप लोग तशरीफ ले जाएँ। मैं थोड़ा व्यस्त हूँ। अभी कुछ दिन व्यस्त ही रहूँगी, इसलिए आने से पहले फोन ज़रूर कर लें।’
कविगण ‘टाइम-पास’ का एक अड्डा ध्वस्त होते देख दुखी मन से विदा हुए।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈