(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )
आज प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक विषय पर आधारित कविता शायद होता हो हल युद्ध भी कभी कभी।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 147 ☆
कविता – शायद होता हो हल युद्ध भी कभी कभी
इतिहास है गवाह, होता है हल,
युद्ध भी कभी कभी.
क्योंकि जो बोलता नहीं,
सुनता ही रह जाता है
कुछ लोग जो,
मानवता से ज्यादा, मानते हैं धर्म
उन्हें दिखता हो शायद ईसा और मूसा के खून में फर्क
वे बनाना चाहते हैं
कट्टर धर्मांध दुनियां
बस एक ही धर्म की
मोहल्ले की सफेद दीवारों पर
रातों – रात उभर आये तल्ख नारे,
देख लगता है,
ये शख्स हमारे बीच भी हैं
मैं यह सब अनुभव कर,
हूं छटपटाता हुआ,
उसी पक्षी सा आक्रांत,
जिसे देवदत्त ने
मार गिराया था अपने
तीक्ष्ण बाणों से
सिद्धार्थ हो कहां
आओ बचाओ
इस तड़पते विश्व को
जो मिसाइलों
की नोक पर
लगे
परमाणु बमों से भयाक्रांत
है सहमी सी
मेरी यह लम्बी कविता,
युद्धोन्मादियों को समझा पाने को,
बहुत छोटी है
काश, होती मेरे पास
प्यार की ऐसी पैट्रियाड मिसाइल,
जो, ध्वस्त कर सकती,
नफरत की स्कड मिसाइलें,
लोगों के दिलों में बनने से पहले ही.
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
मो ७०००३७५७९८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈