हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 19 – व्यंग्य – व्यवस्था का सवाल ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. डॉ परिहार जी ने   विवाह के अवसर पर बारातियों के एक विशिष्ट चरित्र के आधार पर न सिर्फ विवाह अपितु साड़ी व्यवस्था के सवाल पर एक सटीक एवं सार्थक व्यंग्य की रचना की है.  ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनका ऐसे ही विषय पर एक व्यंग्य  “व्यवस्था का सवाल  ”.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 19 ☆

 

☆ व्यंग्य  – व्यवस्था का सवाल  ☆

 

रज्जू पहलवान के सुपुत्र की बरात दो सौ किलोमीटर दूर एक कस्बे में गयी।लड़की के बाप ने अच्छा इन्तज़ाम किया, वैसे भी सभी लड़कियों के बाप उनकी शादी के वक्त अपनी जान हाज़िर कर देते हैं। उसके बाद भी सारे वक्त उनकी जान हलक़ में अटकी रहती है।

रास्ते में दो जगह लड़की के चाचा-मामा ने बरात के स्वागत का इन्तज़ाम किया। नाश्ता-पानी पेश किया, काजू-किशमिश के पैकेट भेंट किये,पान-मसाला के पाउच हाज़िर किये। समझदार लोगों ने काजू-किशमिश के पैकेट जेब में खोंस लिये कि बरात से लौटकर बाल-बच्चों को देंगे। बरात संतुष्ट होकर आगे बढ़ गयी।

बरात लड़की वाले के घर पहुँची तो वहाँ भी भरपूर स्वागत हुआ। रुकने-टिकने की व्यवस्था माकूल थी, सेवा के लिए सेवक और घर के लोग मुस्तैद थे। धोबी, नाई, पालिश वाला अपनी अपनी जगह डटे थे। मुँह से निकलते ही हुकुम की तामीली होती थी। सब जगह इन्तज़ाम चौकस था। कहीं भी ख़ामी निकालना मुश्किल था।

रात को वरमाला के बाद सब भोजन में लग गये। तभी वधूपक्ष को सूचना मिली कि वरपक्ष के कुछ लोग भोजन के लिए नहीं पधार रहे हैं। शायद नाराज़ हैं।

लड़की के चाचा चिन्तित बरात के डेरे पर पहुँचे तो पाया कि वर के चाचा सिर के नीचे कुहनी धरे लम्बे लेटे हैं और उनके आसपास पाँच छः सज्जन अति-गंभीर मुद्रा धारण किये बैठे हैं।

लड़की के चाचा ने हाथ जोड़कर कहा, ‘भोजन के लिए पधारें। ‘

उनकी बात का किसी ने जवाब नहीं दिया। लड़के के चाचा छत में आँखें गड़ाये रहे और उनकी मंडली मुँह पर दही जमाये बैठी रही।

लड़की के चाचा ने दुहराया, ‘चला जाए। ‘

अब लड़के के चाचा ने कृपा करके अपनी आँखें छत पर से उतारकर उन पर टिकायीं, फिर उन्हें सिकोड़कर बोले, ‘आप मज़ाक करते हैं क्या?’

लड़की के चाचा घबराकर बोले, ‘क्या बात है? क्या हुआ?’

वर के चाचा आँखें तरेरकर बोले, ‘होना क्या है? आपकी कोई व्यवस्था ही नहीं है। ‘

लड़की के चाचा परेशान होकर बोले, ‘कौन सी व्यवस्था? कौन सी व्यवस्था रह गयी?’

लड़के के चाचा की नज़र वापस छत पर चढ़ गयी। वहीं टिकाये हुए बोले, ‘कोई व्यवस्था नहीं है। कोई एक कमी हो तो बतायें।’

उनकी मंडली भी भिनभिनाकर बोली, ‘सब गड़बड़ है। ‘

वधू के चाचा और परेशान होकर बोले, ‘कुछ बतायें तो।’

वर के चाचा फिर उनकी तरफ दृष्टिपात करके बोले, ‘आप तो ऐसे भोले बनते हैं जैसे कुछ समझते ही नहीं। हम घंटे भर से यहाँ लेटे हैं, लेकिन कोई पूछने आया कि हम क्यों लेटे हैं?’

लड़की के चाचा झूठी हँसी हँसकर बोले, ‘हम तो आ गये।’

वर के चाचा हाथ नचाकर बोले, ‘आप के आने से क्या फायदा? जब कोई व्यवस्था ही नहीं है तो क्या मतलब?’

लड़की के चाचा ने विनम्रता से कहा, ‘हमने तो व्यवस्था पूरी की है।’

वर के चाचा व्यंग्य के स्वर में बोले, ‘दरअसल आप खयालों की दुनिया में रहते हैं। आप सोचते हैं कि आपने जो कर दिया उससे बराती खुश हो गये। असलियत यह है कि बरातियों में दस तरह के लोग हैं। किसको क्या चाहिए यह आपको क्या मालूम। जिसे दूध पीना है उसे पानी पिलाएंगे तो कैसे चलेगा?’

मंडली ने सहमति में सिर हिलाया।

लड़की के चाचा परेशान होकर बोले, ‘किसे दूध पीना है? अभी भिजवाता हूँ।’

वर के चाचा खिसियानी हँसी हँसकर बोले, ‘हद हो गयी। हम कोई दूध-पीते बच्चे हैं?आप की समझ में कुछ नहीं आता।’

लड़की के चाचा ने दुखी होकर कहा, ‘हमने तो अपनी तरफ से पूरी कोशिश की है कि बरात को शिकायत का मौका न मिले।’

वर के चाचा विद्रूप से बोले, ‘हमीं बेवकूफ हैं जो शिकायत कर रहे हैं। हमने सैकड़ों बरातें की हैं। कोई पहली बरात थोड़इ है।’

लड़की के चाचा हाथ जोड़कर बोले, ‘तो हुकुम करें। क्या व्यवस्था करूँ?’

वर के चाचा वापस छत पर चढ़ गये, लम्बी साँस छोड़कर बोले, ‘क्या हुकुम करें? जब कोई व्यवस्था ही नहीं है तो हुकुम करके क्या करें?’

मंडली ने ग़मगीन मुद्रा में सिर लटका लिया।

लड़की के चाचा के साथ उनके जीजाजी भी थे। वे समझदार, तपे हुए आदमी थे। अपने साले का हाथ पकड़कर बोले, ‘आप समझ नहीं रहे हैं। इधर आइए।’ फिर लड़के वालों से बोले, ‘आप ठीक कह रहे हैं। व्यवस्था में कुछ खामी रह गयी। हम अभी दुरुस्त कर देते हैं।’

सुनते ही लड़के वाले सीधे बैठ गये, जैसे मुर्दा शरीर में जान आ गयी हो। लड़के के चाचा का तना चेहरा ढीला हो गया।

जीजाजी अपने साले को खींचकर बरामदे में ले गये। वहाँ उन्होंने कुछ फुसफुसाया। साले साहब प्रतिवाद के स्वर में बोले,  ‘लेकिन हम तो दस साल पहले गुरूजी के सामने छोड़ चुके हैं। हमारे तो पूरे परिवार में कोई हाथ नहीं लगा सकता।’

जीजाजी बोले, ‘तुम्हें हाथ लगाने को कौन कहता है? तुम ठहरो, हम इन्तजाम कर देते हैं।’

फिर वे बरातियों के सामने आकर बोले, ‘आप निश्चिंत रहें। अभी व्यवस्था हो जाती है। सब ठीक हो जाएगा।’

उनकी बात सुनते ही उखड़े हुए बराती एकदम सभ्य और विनम्र हो गये। हाथ जोड़कर बोले, ‘कोई बात नहीं। आप व्यवस्था कर लीजिए। कोई जल्दी नहीं है।’

आधे घंटे में व्यवस्था हो गयी और बराती सब शिकायतें भूल कर व्यवस्था का सुख लेने में मशगूल हो गये।

कुछ देर बाद फिर लड़की के चाचा बरातियों के हालचाल लेने उधर आये तो लड़के के चाचा ने कुर्सी से उठकर उन्हें गले से लगा लिया। उन्हें खड़े होने और बोलने में दिक्कत हो रही थी, फिर भी भरे गले से बोले, ‘ईमान से कहता हूँ, भाई साहब, कि इतनी बढ़िया व्यवस्था हमने किसी शादी में नहीं देखी। बेवकूफी में आपकी शान के खिलाफ कुछ बोल गया होऊँ तो माफ कर दीजिएगा। अब तो हमारी आपसे जिन्दगी भर की रिश्तेदारी है।’

उनके आसपास गिलासों में डूबी मंडली में से आवाज़ आयी, ‘बिलकुल ठीक कहते हैं।  ऐसी ए-वन व्यवस्था हमने किसी शादी में नहीं देखी।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश