प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण ग़ज़ल “बन सके जनतंत्र का मंदिर परम पावन शिवाला”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा 73 ☆ गजल – ’बन सके जनतंत्र का मंदिर परम पावन शिवाला’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
लोकतंत्र का बना जब से देश में मन्दिर निराला
बड़े श्रद्धा भाव से क्रमशः उसे हमने सम्हाला।
किन्तु अपने ढंग से मन्दिर में घुस पाये जो जब भी
बेझिझक करते रहे वे कई तरह गड़बड़ घोटाला।
जनता करती रही पूजा और आशा शुभ की
राजनेताओं को पहनाती रही नित फूल माला।
पर सभी पंडे-पुजारी मिलके मनमानी मचाये
भक्तों की श्रद्धा को आदर दे कभी मन से न पाला।
हो निराश-हताश भी सहती रही जनता दुखों को
पर किसी ने कभी मुँह से नही ’उफ’ तक भी निकाला
देखकर दुख-दर्द, सहसा, दुर्दशा कठिनाइयों को
आये ’अन्ना’ लिये दृढ़ता दिखाने पावन उजाला।
राज मंदिर से कि जिससें मिले शुद्ध प्रसाद सबकों
कोई मंदिर में न जाये, जिस किसी का मन हो काला।
फिर वह मंदिर जिसका रंग मौसम ने कर डाला है धूमिल
नये रंग से नयी सजधज से पुनः जाये सम्हाला।।
दिखती है जन जागरण की आ गई है मधुर वेला
बन सके जनतंत्र का मंदिर परम पावन शिवाला ।।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी भोपाल ४६२०२३
मो. 9425484452
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈