श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ  में असहमत के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)   

☆ कथा – कहानी # 24 – असहमत और पुलिस अंकल : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

पुलिस अंकल जॉनी जनार्दन का ट्रांसफर तो हुआ पर प्रमोशन पर. जाना तो था ही और गये भी पर पहचान वालों को ये भरोसा देकर गये कि चंद महीनों की बात है. बापू ने चाहा तो जुगाड़ लग ही जायेगा भले ही “बापू” बेहिसाब लग जायें. यह बात असहमत द्वारा इस कदर प्रचारित की गई कि टीवी चैनल वालों की ब्रेकिंग न्यूज़ भी शर्म से पानी पानी हो जाय और कम से कम उन तक तो जरूर पहुंचे जो असहमत की तैयार लिस्ट में चमक रहे थे. समय धीरे धीरे हर घाव भर देता है. वो जलवे जो टेंपरेरी रहते हैं और व्यक्ति को गुब्बारे के समान फुला देते हैं, धीरे धीरे अपनी सामान्य अवस्था में येन केन प्रकारेण ला ही देते हैं. असहमत की लिस्ट के चयनित लोग भी सब कुछ हर होली के साथ भूलते गये और उनके और असहमत के संबंध सामान्य होते गये पर फिर भी असहमत के दिल में पुराने जल्वों की कसक बनी रही. पुलिस अंकल का इंतजार होता रहा पर वो आये नहीं और जब आये भी तो जनार्दन अंकल के नये रंग में जो असहमत के मोहभंग के लिए पर्याप्त था. दरअसल ये नया रूप सेवानिवृत्ति के बाद का था जब व्यक्ति माया, मोह, लिप्सा, घमंड जैसी भौतिक सुविधाओं को छोड़कर आध्यात्मिक होने के बजाय छद्म कर्मकांड के पाखंड में उलझता है और धार्मिक होने का भाव और भ्रम पाल लेता है. आध्यात्मिकता की यात्रा, अध्ययन, विश्लेषण, विश्वास, प्रेम, सहभागिता, सरलता और विनम्रता के पड़ाव पार करती है. ये प्रकृत्ति और स्वभाव का बोध है जो जीवन में पल दर पल विकसित होता है, ये ऐसी अवस्था नहीं है जो रिटायरमेंट के बाद प्राप्त होती है. दूसरी स्थिति छद्मवेशी धर्म से जुड़े कर्मकांड की होती है. व्यक्ति अपने सेवाकाल में सरकारी खर्चों और उचित/अनुचित सुविधाओं का उपभोग कर विभिन्न तीर्थों की यात्राओं का आनंद लेता है और रिटायरमेंट के बाद, मोक्षप्राप्ति के शार्टकट “बाबाओं” की शरण लेता है.

आस्तिकता का आचरण अलग होता है, मोक्ष या पापों के प्रायश्चित की प्रक्रिया में शार्टकट नहीं होता. ये जिज्ञासु के धैर्य, समर्पण और आत्मशुद्धि की सतत जारी परीक्षा है, नफरत, अहंकार और असुरक्षा इसमें अवरोधक और पथभ्रष्टता का काम करते हैं. नफरत है मतलब प्रतिहिंसात्मक प्रवृत्तियों का पोषण हो रहा है.

घर बनाने की वह प्रक्रिया जब गृहनिर्माण के कीमत निर्धारण सहित सारे फैसले बिल्डर करता है और बदले में आपको पैसे के अलावा किसी बात की चिंता नहीं करने की लफ्फाजी करता है, ये घर पाने का शार्टकट है. इसी तरह का काम बहुत सारे धर्म गुरु भी करते हैं जो आपको, पाप मुक्ति, आत्मशुद्धि और मोक्षप्राप्ति के छलावे में उलझाते हैं और स्वयं, बिल्डर के समान संपन्नता और विलासिता का उपभोग करते हैं. जनसेवा का साइनबोर्ड दोनों जगह पाया जाता है और भयभीत कर शोषण का फार्मूला भी.

जनार्दन अंकल जब लौटे तो रंग नया था, रूप नया था. भौंहों के खिंचाव की जगह माथे के तिलक ने ले ली थी. शान का प्रतीक मूंछें वापस तरकश में जा चुकी थीं. जब इस बार सपने और योजनाओं के टूटने से दुखित असहमत ने बहुत धीरे से “नमस्ते अंकल” कहा तो प्रत्युत्तर में धुप्पल की जगह, “खुश रहो बच्चा” का खुशनुमा एहसास पाया. चाल ढाल बातचीत का लहज़ा, वेशभूषा सब बदल गया था. बातों के टॉपिक विभाग की खबरों और शहर के असामाजिक तत्वों की जगह, बाबाजी के गुणगान पर केंद्रित हो गये थे.

असहमत की जिज्ञासा और बोलने की निर्भीकता ने फिर जिस वार्तालाप को जन्म दिया वो प्रस्तुत है.

“जनार्दन अंकल, पहले जब आप से मिलता था तो आपकी शान से मुझमें भी साहस और निर्भयता का संचार होता था. पर अब तो आपका ये नया रूप मुझे भी यह अनुभव कराने लगा है कि मैं भी पापी हूँ.”

अंकल की भंवे, भृकुटि बनते बनते बचीं पर अट्टाहास की प्रवीणता का पूरा उपयोग करते हुये कहा “जब जागो तभी सबेरा. बाबाजी ने मुझे सारी चिंताओं से मुक्त कर दिया है. उनकी शरण में जाने से मैं निश्चिंत हूँ कि उनके पुण्य प्रताप से मुझे पापों से मुक्ति मिलेगी, मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होगा. उनके प्रवचनों से मुझे शांति मिलती है वह बिल्कुल वैसी है जो किसी दुर्दांत अपराधी को पकड़ने से मिलती थी. पहले मैं भी इन असामाजिक तत्वों से निपटते निपटते कठोर बन गया था. तर्क कुतर्क को डंडे से डील करता था पर कभी कभी मेरे वरिष्ठों या नेताओं के आदेश मुझे विचलित कर देते थे पर ली गई शपथ और अनुशासन के नाम पर बंध जाता था. अब तो मैं मुक्त हूँ, बाबाजी की शरण ही मेरी अंतरात्मा को शुद्ध करेगी और सन्मार्ग याने मोक्ष की प्राप्ति की ओर। ले जायेगी.”

असहमत ने फ्राड करने वाले बिल्डरों का उदाहरण देते हुये, डरते डरते फिर एक सवाल दाग ही दिया “अंकल, अगर ये बाबाजी भी फ्राड निकले तो क्या होगा?”

जनार्दन अंकल “साले की ऐसी तैसी कर दूंगा, पुलिस की नौकरी से रिटायर्ड हूँ पर अगर मुझे धोखा दिया तो वो ठुकाई होगी कि उसकी सात पुश्तें बाबागिरी का नाम नहीं लेंगी.”

असहमत का आखिरी सवाल, हमेशा की तरह बहुत खतरनाक था जिसका जवाब नहीं था.

“अंकल, बाबाजी तो वो प्रोडक्ट बेच रहे हैं जो उनके पास है ही नहीं.”

शायद इस सवाल के बाद, कुछ और लिखने की जरूरत नहीं है. समझने वाले समझ जायेंगे और नासमझ इस सवाल को ही या भी नज़रअंदाज़ करके आगे बढ़ जायेंगे..

 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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