डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख कोरोना और जीवन के शाश्वत् सत्य। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 125 ☆

☆ कोरोना और जीवन के शाश्वत् सत्य

कोरोना काल का नाम ज़हन में आते ही मानव दहशत में आ जाता है; उसकी धड़कने तेज़ी से बढ़ने लगती हैं और वह उस वायरस से इस क़दर भयभीत हो जाता है कि उसके रोंगटे तक खड़े हो जाते हैं। इस छोटे से वायरस ने संपूर्ण विश्व में तहलक़ा मचा कर मानव को उसकी औक़ात से अवगत करा दिया था। इतना ही नहीं, उसे घर की चारदीवारी तक सीमित कर दिया था। ‘दो गज़ की दूरी; मास्क है ज़रूरी’ का नारा विश्व में गूंजने लगा था। सैनेटाइज़र व साबुन से हाथ धोने की प्राचीन परंपरा का अनुसरण भी इस काल में हुआ और बाहर से लौटने पर स्नान करने की प्रथा का भी पुन: प्रचलन हो गया। मानव अपने घर से बाहर कदम रखने से भी सकुचाने लगा और सब रिश्ते-नाते सहमे हुए से नज़र आने लगे। संबंध-सरोकार मानो समाप्त हो गए। यदि ग़लती से किसी ने घर में दस्तक दे दी, तो पूरे घर के लोग सकते में आ जाते थे और मन ही मन उसे कोसने लगते थे। ‘अजीब आदमी है, न तो इसे अपनी चिंता है, न ही दूसरों की परवाह… पता नहीं क्यों चला आया है हमसे दुश्मनी निभाने।’ इन असामान्य परिस्थितियों में उसके निकट संबंधी भी उससे दुआ सलाम करने से कन्नी काटने लगते थे। वास्तव में इसमें दोष उस व्यक्ति-विशेष का नहीं; कोरोना वायरस का था। वह अदृश्य शत्रु की भांति पूरे लश्कर के साथ उस परिवार पर ही टूट पड़ता था, जिससे उसका उस काल विशेष में संबंध हुआ था। इस प्रकार यह सिलसिला अनवरत चल निकलता था और पता लगने तक असंख्य लोग इसकी गिरफ़्त में आ चुके होते थे।

कोरोना के रोगी को तुरंत अस्पताल में दाखिल करा दिया जाता था, जहां उसके सगे-संबंधी व प्रियजनों को मिलने की स्वतंत्रता नहीं होती थी और उन विषम परिस्थितियों में वह एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हो जाता था। उसके भीतर ऑक्सीजन की कमी हो जाती थी और वह एक-एक सांस का मोहताज हो जाता था। डॉक्टर व सहायक कर्मचारी आदि भी आवश्यक दूरी बनाकर उसे देखकर चले जाते थे तथा डर के मारे रोगी के निकट नहीं आते थे। अक्सर लोगों को तो अपने घर के अंतिम दर्शन करने का अवसर भी प्राप्त नहीं होता था; न ही उसके परिवारजन भयभीत होकर उसके शव को देखने आते थे। दूसरे शब्दों में वह सरकारी संपत्ति बन जाता था और परिवार के पांच सदस्य दूर से उसके दर्शन कर सकते थे। सो! आत्मजों के मन में यह मलाल रह जाता था कि अंतिम समय में कोई भी रोगी के निकट नहीं था; जो उसके गले में गंगा जल डाल सकता। इतना ही नहीं, असंख्य लावारिस लाशों को श्मशान तक पहुंचाने व उनका अंतिम संस्कार करने का कार्य भी विभिन्न सामाजिक संस्थानों द्वारा किया जाता था।

इन असामान्य परिस्थितियों में कुछ लोगों ने खूब धन कमाया तथा अपनी तिजोरियों को भरा। आक्सीजन का सिलेंडर लाखों रुपये में उपलब्ध नहीं था। रेमेसिवर के इंजेक्शन व दवाएं भी बाज़ार से इस क़दर नदारद हो गये थे– जैसे चील के घोंसले से मांस। टैक्सी व ऑटो वालों का धंधा भी अपने चरम पर था। चंद किलोमीटर की दूरी के लिए वे लाखों की मांग कर रहे थे। लोगों को आवश्यकता की सामग्री ऊंचे दामों पर भी उपलब्ध नहीं थी। अस्पताल में रोगियों को बेड नहीं मिल रहे थे। चारों ओर आक्सीजन के अभाव के कारण त्राहि-त्राहि मची हुई थी। परंतु इन विषम परिस्थितियों में हमारे सिक्ख भाइयों ने जहां गुरुद्वारों में अस्पताल की व्यवस्था की; वहीं आक्सीजन के लंगर चलाए गये। लोग लम्बी क़तारों में प्रतीक्षारत रहते थे, ताकि उन्हें ऑक्सीजन के अभाव में अपने प्राणों से हाथ न धोने पड़ें। बहुत से लोग अपने प्रियजनों के शवों को छोड़ मुंह छिपा कर निकल जाते थे कि कहीं वे भी कोरोना का शिकार न हो जाएं।

चलिए छोड़िए! ‘यह दुनिया एक मेला है/ हर शख़्स यहां अकेला है/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जायेगा।’ यह है जीवन का शाश्वत् सत्य– इंसान दुनिया में अकेला आया है और अकेले ही उसे जाना है। कोरोना काल में गीता के ज्ञान की सार्थकता सिद्ध हो गयी और मानव की आस्था प्रभु में बढ़ गयी। उसे आभास हो गया कि ‘यह किराये का मकां है/ कौन कब तक ठहर पायेगा।’ मानव जन्म से पूर्व निश्चित् सांसें लिखवा कर लाता है और सारी सम्पत्ति लुटा कर भी वह एक भी अतिरिक्त सांस तक नहीं खरीद पाता है।

सो! कोरोना काल की दूसरी व तीसरी लहर ने विश्व में खूब सितम ढाया तथा करोड़ों लोगों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। लॉकडाउन भी लगभग दो वर्ष तक चला और ज़िंदगी का सिलसिला थम-सा गया। सब अपने घर की चारदीवारी में कैद होकर रह गये। वर्क फ्रॉम होम का सिलसिला चल निकला, जो लोगों पर नागवार गुज़रा। जो लोग पहले छुट्टी के लिए तरसते थे; ट्रैफिक व रोज़ की आवाजाही से तंग थे और यही कामना करते थे… काश! उन्हें भी घर व परिवारजनों के साथ समय गुज़ारने का अवसर प्राप्त होता। अंततः भगवान ने उनकी पुकार सुन ली और लॉकडाउन के रूप में नवीन सौग़ात प्रदान की, जिसे प्राप्त करने के पश्चात् वे सब सकते में आ गए। घर-परिवार में समय गुज़ारना उन्हें रास नहीं आया। पत्नी भी दिनभर पति व बच्चों की फरमाइशें पूरी करते-करते तंग आ जाती थी और वह पति से घर के कामों में सहयोग की अपेक्षा करने लगी। सबकी स्वतंत्रता खतरे में पड़ गई और उस पर प्रश्नचिन्ह लग गए थे। सभी लोग तनाव की स्थिति में रहने और दुआ करने लगे…हे प्रभु! इस लॉकडाउन से मुक्ति प्रदान करो। अब उन्हें घर रूपी मंदिर की व्यवस्था पर संदेह होने लगा और उनके अंतर्मन में भयंकर तूफ़ान उठने लगे। फलत: वे मुक्ति पाने के लिए कुलबुलाने लगे।

1जनवरी 2020 से नवंबर 2021 तक कोरोना ने लोगों पर खूब क़हर बरपाया। इसके पश्चात् लोगों को थोड़ी राहत महसूस हुई। तभी ओमीक्रॉन के रूप में तीसरी लहर ने दस्तक दी। लोग मन मसोस कर रह गए। परंतु गत वर्ष अक्सर लोगों को वैक्सीनेशंस की दोनों डोज़ लग चुकी थी। सो! इसकी मारक शक्ति क्षीण हो गई। शायद! उसका प्रभाव भी लम्बे समय तक नहीं रह पायेगा। आशा है, वह शीघ्र ही अपनी राह पर लौट जाएगा और सामान्य दिनचर्या प्रारंभ हो जायेगी।

आइए! कोरोना के उद्गम के मूल कारणों पर चिन्तन करें…आखिर इसके कारण विश्व में असामान्य व विषम परिस्थितियों ने दस्तक क्यों दी? वास्तव में मानव स्वयं इसके लिए उत्तरदायी है। उसने हरे-भरे जंगल काट कर कंकरीट के महल बना लिए हैं। वृक्षों का अनावश्यक कटाव, तालाब व बावड़ियों की ज़मीन पर कब्ज़ा कर बड़ी-बड़ी कालोनियां के निर्माण के कारण भयंकर बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो गयी। इस प्रकार मानव ने अनावश्यक-अप्राकृतिक दोहन कर प्रकृति से खिलवाड़ किया और वह भी अपना प्रतिशोध लेने पर आमादा हो गई…कहीं सुनामी दस्तक देने लगा, तो कहीं ज्वालामुखी फूटने लगे; कहीं पर्वत दरक़ने लगे, तो कहीं बादल फटने से भीषण बाढ़ के कारण लोगों का जीना मुहाल हो गया। इतना ही नहीं, आजकल कहीं सूखा पड़ रहा है, तो कहीं ग्लेशियर पिघलने से तापमान में परिवर्तन ही नहीं; कहीं भूकम्प आ रहे हैं, तो कहीं सैलाब की स्थिति उत्पन्न हो रही है। बेमौसमी बरसात से किसानों पर भी क़हर बरप रहा है और लोगों की ज़िंदगी अज़ाब बनकर रह गयी है; जहां मानव दो पल भी सुक़ून से नहीं जी पाता।

धरती हमारी मां है; जो हमें आश्रय व सुरक्षा प्रदान करती है। पावन नदियां जीवनदायिनी ही नहीं; हमारे पापों का प्रक्षालन भी करती हैं। पर्वतों को काटा जा रहा है, जिसके कारण वे दरक़ने लगे हैं और मानव को अप्रत्याशित आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है। पराली जलाने व वाहनों के इज़ाफा होने का कारण पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, जिसके कारण मानव को सांस लेने में भी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। प्लास्टिक के प्रयोग का भी असाध्य रोगों की वद्धि में भरपूर व असाधारण योगदान है। इतना ही नहीं–बच्चों का बचपन कोरोना ने लील लिया है। युवा व वृद्ध मानसिक प्रदूषण से जूझ रहे हैं। वे तनाव व अवसाद के शिकंजे में हैं और लॉकडाउन ने इसमें भरपूर इज़ाफा किया है।

काश! हमने अपनी संस्कृति को संजोकर रखा होता… प्रकृति को मां स्वीकार उसकी पूजा, उपासना, आराधना व वंदना की होती; संयुक्त परिवार व्यवस्था को अपनाते हुए घर में बुज़ुर्गों को मान-सम्मान दिया होता; बेटे-बेटी को समान समझा होता; बेटों को बचपन से मर्यादा का पाठ पढ़ाया होता, तो वे भी सहनशील होते। उन्हें घर में घुटन महसूस नहीं होती। वे घर को मंदिर समझ कर गुनगुगाते…’ईस्ट और वेस्ट, होम इज़ दी बेस्ट’ अर्थात् मानव विश्व में कहीं भी घूम ले; उसे अपने घर लौट कर ही सुक़ून प्राप्त होता है। वैसे तो लड़कियों को बचपन से कायदे-कानून सिखाए जाते हैं; मर्यादा का पाठ पढ़ाया जाता है; घर की चारदीवारी न लांघने का संदेश दिया जाता है और पति के घर को अपना घर स्वीकारने की सीख दी जाती है। परंतु लड़कों के लिए कोई बंधन नहीं होता। वे बचपन से स्वतंत्र होते हैं और उनकी हर इच्छा का सम्मान किया जाता है। यहीं से चल निकलता है मनोमालिन्य व असमानता बोध का सिलसिला…जिसका विकराल रूप हमें कोरोना काल में देखने को मिला और गरीबों, श्रमिकों व सामान्यजनों पर इसकी सबसे अधिक गाज़ गिरी। उन्हें दो जून की रोटी भी नसीब नहीं हुई। यातायात के पहिए थम गए और वे अपने परिवारजनों के साथ अपने घर की ओर निकल पड़े उन रास्तों पर, ताकि वे अपने घर पहुंच सकें। मीलों तक बच्चों को कंधे पर बैठा कर सामान का बोझा लादे, माता-पिता का हाथ थामे उन्होंने पैदल यात्रा की। तपती दोपहरी में तारकोल की सड़कों पर नंगे पांव यात्रा करने का विचार भी मानव को सकते में डाल देता है, परंतु उनके दृढ़ निश्चय के सामने कुछ भी टिक नहीं पाया। पुलिस वालों ने उन्हें समझाने का भरसक प्रयास किया, तो कहीं बल प्रयोग कर लाठियां मांजी, क्योंकि वहां जाकर उन्हें क्वारंटाइन करना पड़ेगा। जी हां! कोरोना व क्वारंटाइन दोनों की राशि समान है। सो! चंद दिनों की यात्रा उन लोगों के लिए पहाड़ जैसी बन गई। कई दिन की लम्बी यात्रा के पश्चात् वे अपने गांव पहुंचे, परंतु वहां भी उन्हें सुक़ून प्राप्त नहीं हुआ। चंद दिनों के पश्चात् उन्हें लौटना पड़ा, क्योंकि उनके लिए वहां भी कोई रोज़गार नहीं उपलब्ध नहीं था। कोराना ने जहां मानव को निपट स्वार्थी बना दिया, वहीं उसने मानव में स्नेह, सौहार्द व अपनत्व भाव को भी विकसित किया। असंख्य लोगों ने नि:स्वार्थ भाव से पीड़ित परिवारों की तन-मन-धन से सहायता की ।

आइए! करोना के दूसरे पक्ष पर भी दृष्टिपात करें। करोना ने मानव को एकांत में आत्मावलोकन व चिंतन-मनन करने का शुभ अवसर प्रदान किया। वैसे भी इंसान विपत्ति में ही प्रभु को स्मरण करता है। कबीरदास जी की पंक्तियां ‘सुख में सुमिरन सब करें, दु:ख में करे न कोय/ जो सुख में सिमरन करे, तो दु:ख काहे को होय’ के माध्यम से मानव को ब्रह्म की सत्ता को स्वीकारने व हर परिस्थिति में उसका स्मरण करने का संदेश प्रेषित किया गया है, क्योंकि वह मानव का सबसे बड़ा हितैषी है और सदैव उसका साथ निभाता है। सुख-दु:ख एक सिक्के के दो पहलू हैं। एक के जाने के पश्चात् दूसरा दस्तक देता है। सो! ‘जो आया है; अवश्य जाएगा। ऐ मन! भरोसा रख अपनी ख़ुदी पर/ यह समां भी बदल जाएगा।’ आकाश में छाए घने बादलों का बरसना व शीतलता प्रदान करना अवश्यंभावी है। कोरोना ने ‘अतिथि देवो भव’ तथा ‘सर्वेभवंतु सुखीन:’ की भावना को सुदृढ़ किया है। परिणामत: मानव मन में सत्कर्म करने की भावना प्रबल हो उठी, क्योंकि मानव को विश्वास हो गया कि उसे कृत-कर्मों के अनुरूप ही फल प्राप्त होता है। कोरोना काल में जहां मानव अपने घर की चारदीवारी में कैद होकर रह गया, वहीं उसने अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति के नवीन साधन भी खोज निकाले। इंटरनेट पर वेबीनारज़ व काव्य-गोष्ठियों का सिलसिला अनवरत चल निकला। विश्व ग्लोबल विलेज बन कर रह गया। लोगों को प्रतिभा-प्रदर्शन के विभिन्न अवसर प्राप्त हुए, जो इससे पूर्व उनके लिए दूर के ढोल सुहावने जैसे थे।

सो! मानव प्रकृति की दिव्य व विनाशकारी शक्तियों को स्वीकार उसकी ओर लौटने लगा और नियति के सम्मुख नत-मस्तक हो गया, क्योंकि एक छोटे से वायरस ने सम्पूर्ण विश्व को हिलाकर रख दिया था। अहं सभी दोषों का जनक है; मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और अहं को प्रभु चरणों में समर्पित कर देना– शांति पाने का सर्वोत्तम उपाय स्वीकारा गया है। ‘ब्रह्म सत्यं, जगत् मिथ्या’ ही जीवन का सत्य है और माया के प्रभाव के कारण ही वह नश्वर संसार सत्य भासता है। इसलिए मानव को सांसारिक बंधनों में लिप्त नहीं रहना चाहिए।

कोरोना काल में हर इंसान को शारीरिक व मानसिक आपदाओं से जूझना पड़ा–यह अकाट्य सत्य है। मुझे भी बीस माह तक अनेक शारीरिक आपदाओं का सामना करना पड़ा। सर्वप्रथम कंधे, तत्पश्चात् टांग की हड्डी टूटने पर उनकी सर्जरी ने हिला कर रख दिया और एक वर्ष तक मुझे इस यातना को झेलना पड़ा। इसी बीच कोरोना की दूसरी लहर ने अपना प्रकोप दिखाया और लंबे समय तक ज़िंदगी व मौत से कई दिन तक जूझना पड़ा। उस स्थिति में प्रभु सत्ता का पूर्ण आभास हुआ और उसकी असीम कृपा से वह दौर भी गुज़र गया। परंतु अभी और भी परीक्षाएं शेष थीं। कैंसर जैसी बीमारी ने सहसा जीवन में दस्तक दी। उससे रूबरू होने के पश्चात् पुन: नवजीवन प्राप्त हुआ, जिसके लिए मैं प्रभु के प्रति हृदय से शुक्रगुज़ार हूं। मात्र दो माह पश्चात् साइनस की सर्जरी हुई। यह सिलसिला यहां थमा नहीं। उसके पश्चात् दांत की सर्जरी ने मेरे मनोबल को तोड़ने का भरसक प्रयास किया। परंतु इस अंतराल में प्रभु में आस्था व निष्ठा बढ़ती गयी। ‘उसकी रहमतों का कहां तक ज़िक्र करूं/ उसने बख़्शी है मुझे ज़िंदगी की दौलत/ ताकि मैं संपन्न कर सकूं अधूरे कार्य/ और कर सकूं जीवन को नई दिशा प्रदान।’ जी हां! कोराना काल में जो भी लिखा, उसके माध्यम से प्रभु महिमा का गुणगान व अनेक भक्ति गीतों का सृजन हुआ, जिसके फलस्वरूप आत्मावलोकन, आत्मचिंतन व आत्म-मंथन का भरपूर अवसर प्राप्त हुआ। मानव प्रभु के हाथों की कठपुतली है। वह उसे जैसा चाहता है; नाच नचाता है। सो! मानव को हर पल उस सृष्टि-नियंता का ध्यान करना चाहिए, क्योंकि वही भवसागर में डूबती-उतराती नैया को पार लगाता है; मन में विरह के भाव जगाता है और एक अंतराल के पश्चात् मिलन की उत्कंठा इतनी प्रबल हो जाती है कि प्रभु के दरस के लिए मन चातक आतुर हो उठता है। मुझे स्मरण हो रही हैं अपने ही गीत की पंक्तियां ‘मन चातक तोहे पुकार रहा/ अंतर प्यास गुहार रहा’ और ‘कब रे मिलोगे राम/ बावरा मन पुकारे सुबहोशाम’ आदि भाव मानव को प्रभु की महिमा को अंत:करण से स्वीकारने का अवसर प्रदान करते हैं। इतना ही नहीं, प्रभु ही मानव की इच्छाओं पर अंकुश लगा कर संसार के प्रति वैराग्य भाव जाग्रत करते हैं। ‘चल मन गंगा के तीर/ क्यों वृथा बहाए नीर’ आदि भक्ति गीतों में व्यक्त भावनाएं कोरोना काल में आत्म-मंथन का साक्षात् प्रमाण हैं। इस अंतराल में सकारात्मक सोच पर लिखित मेरी चार पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं तथा आध्यात्म पर अब भी लेखन जारी है।

‘कोरोना काल में आत्म-मंथन’ पुस्तक के प्रथम भाग में कोरोना से संबंधित पांच आलेख व कविताएं संग्रहित हैं तथा द्वितीय भाग में कोरोना के दुष्प्रभाव के फलस्वरूप श्रमिक व गरीब लोगों के पलायन से संबंधित कविताएं द्रष्टव्य हैं। तृतीय भाग में अध्यात्म व दर्शन से संबंधित भक्ति गीत व चिन्तन प्रधान कविताएं हैं, जो संसार की नश्वरता व प्रभु महिमा को दर्शाती हैं। उस स्थिति में मानव मन अतीत की स्मृतियों में विचरण कर निराश नहीं होता, बल्कि उसमें आत्मविश्वास का भाव जाग्रत होता है। ‘समय बलवान् है/ सभी रत्नों की खान है/ आत्मविश्वास संजीवनी है/ साहस व धैर्य का दामन थामे रखें/ मंज़िल तुम्हारे लिए प्रतीक्षारत है।’ मैं तो उसकी रज़ा के सम्मुख नत-मस्तक हूं तथा उसकी रज़ा को अपनी रज़ा समझती हूं। वह करुणानिधि, सृष्टि-नियंता प्रभु हमारे हित के बारे में हमसे बेहतर जानता है। इसलिए उस पर भरोसा कर, हमें अपनी जीवन नौका को नि:शंक भाव से उसके हाथों में सौंप देना चाहिए। जब मैं इन दो वर्ष के अतीत में झांकती हूं, तो सबके प्रति कृतज्ञता भाव ज्ञापित करती हूं, जिन्होंने केवल मेरी सेवा ही नहीं की; मेरा मनोबल भी बढ़ाया। अक्सर मैं सोचती हूं कि ‘यदि प्रभु मुझे इतने कष्ट न देता, तो शायद यह सृजन भी संभव नहीं होता–न ही मन में प्रभु भक्ति में लीन होता और न ही उसअलौकिक सत्ता के प्रति सर्वस्व समर्पण का भाव जाग्रत होता। सो! जीवन में इस धारणा को मन में संजो लीजिए कि उसके हर काम में भलाई अवश्य होती है। इसलिए संदेह, संशय व शंका को जीवन में कभी दस्तक न देने दीजिए, क्योंकि ‘डुबाता भी वही है/ पार भी वही लगाता है/ इसलिए ऐ बंदे! तू क्यों व्यर्थ इतराता/ और चिन्ता करता है।’ भविष्य अनिश्चित है; नियति अर्थात् होनी बहुत प्रबल है तथा उसे कोई नहीं टाल सकता। मैं तो वर्तमान में जीती हूं और कल के बारे में सोचती ही नहीं, क्योंकि होगा वही, जो मंज़ूरे-ख़ुदा होगा। वही सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम होगा और हमारे हित में होगा। सो! अपनी सोच सकारात्मक रखें व निराशा को अपने आसपास भी फटकने न दें। समय परिवर्तनशील है, निरंतर द्रुत गति से चलता रहेगा। सुख-दु:ख भी क्रमानुसार आते-जाते रहेंगे। इसलिए निरंतर कर्मशील रहें। राह के कांटे बीच राह अवरोध उत्पन्न कर तुम्हें पथ-विचलित नहीं कर पाएंगे। इन शब्दों के साथ मैं अपनी लेखनी को विराम देती हूं। आशा है, यह पुस्तक आपको आत्मावलोकन ही नहीं, आत्म-चिन्तन करने पर भी विवश कर देगी और आप मानव जीवन की क्षण-भंगुरता को स्वीकार स्व-पर व राग-द्वेष की मानसिक संकीर्णता से ऊपर उठ सुक़ून भरी ज़िंदगी जी पाएंगे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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