श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 102 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 13 – पंडित केरी पोंथियाँ… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अथ श्री पाण्डे कथा (3)

पंडित केरी पोंथियाँ, ज्यों तीतुर कौ ज्ञान।

औरण सगुण बतात हैं, अपनौ फंद न जान॥

शाब्दिक अर्थ:-  पंडित जी अपनी पोथियों के साथ प्राय: तोता या तीतर पक्षी को साथ लेकर सड़क के किनारे बैठे बैठे लोगों का भविष्य फल बताते हैं। उनकी पोंथियाँ में ज्ञान तीतर के ज्ञान जैसा ही होता है जो दूसरों का सगुन तो बता देता हैं पर पंडित जी अपना स्वयं का  भविष्य नहीं जान पाते और ज़िंदगी सड़क के किनारे बैठे बैठे काट देते हैं।

रामायण पाण्डे के दिन बहुरे। हिरदेपुर गाँव दमोह से कोई 3-4 मील दूर था और बाँसा, जो कोपरा नदी के तट पर बसा है,  से भी नजदीक ही था। काली मिट्टी के खेत में उपज अच्छी हो जाती थी। मंदिर से लगी खेती को रामायण पाण्डे अधिया बटाई पर किसी भी काश्तकार को दे देते और गेंहू, ज्वार, मूंग और तिलहन की इतनी उपज तो हो ही जाती कि भगवान का दोनों समय का भोग लग जाता और उसी भोग से पंडित जी के परिवार का भरण पोषण हो जाता। रामायण ज्यादा लालची न थे अत: खेती की उपज बढ़ाने के कोई अन्य उपाय उन्होने कभी सोचे ही नहीं। बटाईदार जितना दे जाते खुशी खुशी भगवान का प्रसाद समझ मंदिर से लगी कोठरी में रखवा लेते। जब कभी किसान दूध और दही भी भगवान को चढ़ा जाते वह भी रामायण पाण्डे और उनके परिवार के काम आ जाता। पर पंडिताइन को इतने से संतोष न था और उनकी ताने बाजी चलती रहती। पंडिताइन हमेशा रामायण से कहती

‘दूसरन खों तो पुथन्ना पढ़ पढ़ खूब ज्ञान देत हो अपने बारे में भी कच्छु सोचो।‘

रामायण ऐसे अवसर पर चुप रह जाना ही पसंद करते और सिर्फ इतना कहते ‘अरी भागवान संतोष रख, भोले की कृपा से अच्छे दिन आए हैं।‘ पर पंडिताइन भी कहाँ मानती दो चार बातें और सुना देती और जब रामायण के तर्कों के आगे उनकी न चलती तो बिसुरते हुये कह उठती

‘सजीवन के भविष की तो सोचो तुमाए तरीका से तो  चल गई गिरस्ती और हो गओ मोड़ा को बियाव।‘

हार थक रामायण यह कहावत कह चुप हो जाते

“माखी गुड माँ गड़ी रहे पंख रहे लिपटाय हाथ मले अरु सिर धुने कहे लालच बुरी बलाय।‘

क्रमश:…

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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