श्री अरुण श्रीवास्तव

 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।)   

☆ आलेख # 25 – प्रबुद्धता या अपनापन ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

विराटनगर शाखा में उच्च कोटि की अलंकृत भाषा में डाक्टरेट प्राप्त शाखाप्रबंधक का आगमन हुआ. शाखा का स्टाफ हो या सीधे सादे कस्टमर, उनकी भाषा समझ तो नहीं पाते थे पर उनसे डरते जरूर थे. कस्टमर के चैंबर में आते ही प्रबंधक जी अपनी फर्राटेदार अलंकृत भाषा में शुरु हो जाते थे और सज्जन पर समस्या हल करने आये कस्टमर यह मानकर ही कि शायद इनके चैंबर में आने पर ही स्टाफ उनका काम कर ही देगा, दो मिनट रुककर थैंक्यू सर कहकर बाहर आ जाते थे. बैठने का साहस तो सिर्फ धाकड़ ग्राहक ही कर पाते थे क्योंकि उनका भाषा के पीछे छिपे बिजनेस  प्लानर को पहचानने का उनका अनुभव था.

एक शरारती कस्टमर ने उनसे साहस जुटाकर कह ही दिया कि “सर, आप हम लोगों से फ्रेंच भाषा में बात क्यों नहीं करते.

साहब को पहले तो सुखद आश्चर्य हुआ कि इस निपट देहाती क्षेत्र में भी भाषा ज्ञानी हैं, पर फिर तुरंत दुखी मन से बोले कि कोशिश की थी पर कठिन थी. सीख भी जाता तो यहाँ कौन समझता, आप ?

शरारती कस्टमर बोला : सर तो अभी हम कौन समझ पाते हैं.जब बात नहीं समझने की हो तो कम से कम स्टेंडर्ड तो अच्छा होना चाहिए.

जो सज्जन कस्टमर चैंबर से बाहर आते तो वही स्टाफ उनका काम फटाफट कर देता था.एक सज्जन ने आखिर पूछ ही लिया कि ऐसा क्या है कि चैंबर से बाहर आते ही आप हमारा काम कर देते हैं.

स्टाफ भी खुशनुमा मूड में था तो कह दिया, भैया कारण एक ही है, उनको न तुम समझ पाते हो न हम. इसलिए तुम्हारा काम हो जाता है. क्योंकि उनको समझने की कोशिश करना ही नासमझी है. इस तरह संवादहीनता और संवेदनहीनता की स्थिति में शाखा चल रही थी.

हर व्यक्ति यही सोचता था कौन सा हमेशा रहने आये हैं, हमें तो इसी शाखा में आना है क्योंकि यहाँ पार्किंग की सुविधा बहुत अच्छी है. पास में अच्छा मार्केट भी है, यहाँ गाड़ी खड़ी कर के सारे काम निपटाकर बैंक का काम भी साथ साथ में हो जाता है. इसके अलावा जो बैंक के बाहर चाय वाला है, वो चाय बहुत बढिय़ा, हमारे हिसाब की बनाकर बहुत आदर से पिलाता है.हमें पहचानता है तो बिना बोले ही समझ जाता है. आखिर वहां भी तो बिना भाषा के काम हो ही जाता है। पर हम ही उसके परिवार की खैरियत और खोजखबर कर लेते हैं

पर चाय वाले से इतनी हमदर्दी ?

क्या करें भाई, है तो हमारे ही गांव का, जब वो अपनी और हमारी भाषा में बात करता है तो लगता है उसकी बोली हमको कुछ पल के लिये हमारे गांव ले जा रही है.

एक अपनापन सा महसूस हो जाता है कि धरती की सूरज की परिक्रमा की रफ्तार कुछ भी हो,शायद हम लोगों के सोशल स्टेटस अलग अलग लगें पर हमारा और उसका टाईम ज़ोन एक ही है. याने उसके और हमारे दिन रात एक जैसे और साथ साथ होते हैं।

शायद यही अपनापन महसूस होना या करना, आंचलिकता से प्यार कहलाता हो।

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments