श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 133 ☆ राम, राम-सा..! ?

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे,

सहस्त्रनामतत्तुल्यं राम नाम वरानने।

राम मर्यादापुरुषोत्तम हैं, लोकहितकारी हैं। राम एकमेवाद्वितीय हैं। राम राम-सा ही हैं, अन्य कोई उपमा उन्हें परिभाषित नहीं कर सकती।

विशेष बात यह कि अनन्य होकर भी राम सहज हैं, अतुल्य होकर भी राम सरल हैं, अद्वितीय होकर भी राम हरेक को उपलब्ध हैं। डाकू रत्नाकर ने मरा-मरा जपना शुरू किया और राम-राम तक आ पहुँचा। व्यक्ति जब सत्य भाव और करुण स्वर से मरा-मरा जपने लगे तो उसके भीतर करुणासागर राम आलोकित होने लगते हैं।

राम का शाब्दिक अर्थ  हृदय में रमण करने वाला है। रत्नाकर का अपने हृदय के राम से साक्षात्कार हुआ और जगत के पटल पर महर्षि वाल्मीकि का अवतरण हुआ। राम का विस्तार शब्दातीत है। यह विस्तार लोक के कण-कण तक पहुँचता है और राम अलौकिक हो उठते हैं। कहा गया है, ‘रमते कणे कणे, इति राम:’.. जो कण-कण में रमता है, वह राम है।

राम ने मनुष्य की देह धारण की। मनुष्य जीवन के सारे किंतु, परंतु, यद्यपि, तथापि, अरे, पर,  अथवा उन पर भी लागू थे।  फिर भी वे पुराण पुरुष सिद्ध हुए। 

वस्तुतः इस सिद्ध यात्रा को समझने के लिए उस सर्वसमावेशकता को समझना होगा जो राम के व्यक्तित्व में थी। राम अपने पिता के जेष्ठ पुत्र थे।  सिंहासन के लिए अपने भाइयों और पिता की हत्या की घटनाओं से संसार का इतिहास रक्तरंजित है। इस इतिहास में राम ऐसे अमृतपुत्र के रूप में उभरते हैं जो पिता द्वारा दिये वचन का पालन करने के लिए राज्याभिषेक से ठीक पहले राजपाट छोड़कर चौदह वर्ष के लिए वनवास स्वीकार कर लेता है। यह अनन्य है, अतुल्य है, यही राम हैं।

भाई के रूप में भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के लिए राघव अद्वितीय सिद्ध हुए। उनके भ्रातृप्रेम का अनूठा प्रसंग हनुमन्नाष्टक में वर्णित है। मेघनाद की शक्ति से मूर्च्छित हुए लक्ष्मण की चेतना लौटने पर हनुमान जी ने पूछा, ‘हे  लक्ष्मण, शक्ति के प्रहार से बहुत वेदना हुई होगी..!’  लक्ष्मण बोले, “नहीं महावीर,  मुझे तो केवल घाव हुआ,  वेदना तो भाई राम को हुई होगी..!’

यह वह समय था जब समाज में बहु पत्नी का चलन था। विशेषकर राज परिवारों में तो राजाओं की अनेक पत्नियाँ होना सामान्य बात थी। ऐसे समय में अवध का राजकुमार, भावी सम्राट एक पत्नीव्रत का आजीवन पालन करे, यह विलक्ष्ण है।

शूर्पनखा का प्रकरण हो या पार्वती जी द्वारा सीता मैया का वेश धारण कर उनकी परीक्षा लेने का प्रसंग, श्रीराम की महनीय शुद्धता 24 टंच सोने से भी आगे रही। सीता जी के रूप में पार्वती जी को देखते ही श्रीराम ने हाथ जोड़े और पूछा, “माता आप अकेली वन में विचरण क्यों कर रही हैं और भोलेनाथ कहाँ हैं? ”

इसी तरह हनुमान जी के साथ स्वामी भाव न रखते हुए भ्रातृ भाव रखना, राम के चरित्र को उत्तुंग करता है- ‘तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।’

समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना राम के व्यक्तित्व से सीखा जा सकता है। उनकी सेना में वानर, रीछ, सभी सम्मिलित हैं। गिद्धराज जटायु हों, वनवासी माता शबरी हों, नाविक केवट हो, निषादराज गुह अथवा अपने शरीर से रेत झाड़कर सेतु बनाने में सहायता करनेवाली गिलहरी,  सबको सम्यक दृष्टि से देखने वाला यह रामत्व केवल राम के पास ही हो सकता था। संदेश स्पष्ट है, जो तुम्हारे भीतर बसता है, वही सामने वाले के भीतर भी रमता है।…रमते कणे कणे…!  कण कण में राम को राम ने देखा, राम ने जिया।

राजस्थान में अभिवादन के लिए ‘राम राम-सा’ कहा जाता है। लोक के इस संबोधन में एक संदेश छिपा है। राम-सा केवल राम ही हो सकते हैं। सात्विकता से सुवासित जब कोई  ऐसा सर्वगुणसम्पन्न हो कि उसकी तुलना किसी से न की जा सके, अपने जैसा एकमेव आप हो तो राम से श्रीराम होने की यात्रा पूरी हो जाती है। यही राम नाम का महत्व है, राम नाम की गाथा है और रामनाम का अविराम भी है।

राम राम रघुनंदन राम राम,

राम-राम भरताग्रज राम राम।

राम-राम रणकर्कश राम राम,

राम राम शरणम् भव राम राम।।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments