डॉ भावना शुक्ल
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 18 साहित्य निकुंज ☆
☆ मन ☆
“मन” क्या है?
मन का सीधा सम्बन्ध मस्तिष्क से होता है. जैसे भी विचार हमारे मन में विचरण करते है उसी प्रकार का हमारा शरीर भी ढल जाता है. मन शब्द में इतना प्रवाह है की वो किसी प्रभाव को नहीं रोक सकता. मन के पंख इतने फड़फड़ाते हैं कि वो जब भी जहाँ चाहे उड़ सकता है.
मन नहीं है, तो किसी से नहीं मिलो. मन है तो मिलते ही रहो. मन में यदि कुछ पाने की तमन्ना है और आशावादी विचार हैं, तो मन के मुताबिक कार्य भी संभव हो जाता है.
सब कुछ मन पर निर्भर है जैसे कहा गया है… “मन के हारे हार है मन के जीते जीत “ यानि मन रूपी चक्की में शुद्ध विचार रूपी गेहूं डालो तो परिणाम अच्छा ही मिलेगा.
जैसे सूरदास जी लिख गये … उधौ मन न भय दस बीस ….मन तो एक ही है. एक ही को दिया जा सकता है …और जो लोग मन को भटकाते फिरते हैं, उनकी चिंतन शक्ति में कुछ कमी है.
कहा भी गया है… “नर हो न निराश करो मन को ….जब मनुष्य का मन मर जाता है तो उसके लिए सब कुछ व्यर्थ है, अर्थरहित है और जब मन क्रियाशील रहता है तब हम मन से कुछ भी कर सकते है.
कबीरदास जी का यह कथन याद आता है .. “मन निर्मल होने पर आचरण निर्मल होगा और आचरण निर्मल होने से ही आदर्श मनुष्य का निर्माण हो सकेगा। किन्तु, आज के इस परिवेश में मन निर्मल तो बहुत दूर की बात है.
© डॉ.भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची
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