श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “प्रायोजित प्रयोजन…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 95 ☆
समय बहुत तेजी से बदलता जा रहा है। आजकल सब कुछ प्रायोजित होने लगा है। पहले तो दूरदर्शन के कार्यक्रम, मैच या कोई बड़ा आयोजन ही इसके घेरे में आते थे किंतु आजकल बड़े सितारों के जन्मदिन, विवाह उत्सव या कोई विशेष कार्य भी प्रायोजित की श्रेणी में आ गए हैं । फेसबुक, यूट्यूब, आदि सोशल मीडिया पर तो बूस्ट पोस्ट होती है। मजे की बात अब त्योहार व उससे जुड़े विवाद भी प्रायोजित की श्रेणी में आ खड़े
हुए हैं। एक साथ सारे देश में एक ही मुद्दे पर एक ही समय पर एक से विवाद, एक ही शैली में आ धमकते हैं।इसकी गूँज चारों ओर मानवता की पीड़ा के रूप में दृष्टिगोचर होने लगती है।
इसकी जिम्मेदारी किसकी है, कौन इस सूत्र को जोड़- जोड़ कर घसीट रहा है व कौन बेदर्दी से तोड़े जा रहा है। इसका चिंतन कौन करेगा? दोषारोपण करते हुए मूक दर्शक बनकर रहना भी आसान नहीं होता है। लेकिन जिम्मेदार लोग एक दूसरे पर कीचड़ उछालते हुए एकतरफा निर्णय सुनाते जा रहे हैं। वैसे ऐसे विवादों से एक लाभ यह होता है कि देश के मूल मुद्दों से आम जनता का ध्यान भटक जाता है। जिससे राजनीतिक रोटियों को सेंकना और फिर उन्हें परोसना आसान होने लगता है।
कोई भी कार्य दो आधारों पर बाँटे जा सकते हैं – चुनाव से पूर्व के कार्य व चुनाव के बाद के कार्य।
चुनाव के कुछ दिनों पूर्व सबसे अधिक चिंता हर दल को केवल गरीबों की होती है। ऐसा लगता है कि पाँच वर्ष पूरे होने के दो महीने पहले ही यह वर्ग सामने आता है, इनका दुःख दर्द सभी को सालने लगता है ।
तरह – तरह के प्रलोभनों द्वारा इन्हें आकर्षित कर अपने दलों का महिमामंडन करते हुए लोग जाग्रत हो जाते हैं।
अरे भई इतने दिनों तक क्या ये इंसान नहीं थे, क्या इनकी मूलभूत आवश्यकताओं पर तब आपका ध्यान नहीं था, तब क्या ये पंछियो की तरह आकाश में विचरण कर घोसले बना कर रहते थे या धूल के गुबार बन बादलों में छिपे थे।
सच्चाई तो यही है कि कोई भी दल इनकी स्थिति में सुधार चाहता ही नहीं तभी तो इस वर्ग के लोगों में भारी इजाफा हो रहा है, इनकी मदद के लिए सभी आगे आते हैं किंतु कैसे गरीबी मिटे इस पर चिंतन बहुत कम लोग करते हैं।
केवल आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहने से ये वर्ग दिनों दिन अमरबेल की तरह बढ़ता जायेगा। अभी भी समय है बुद्धिजीवी वर्ग को चिंतन- मनन द्वारा कोई नया रास्ता खोजना चाहिए जिससे सबके लिए समान अवसर हो अपनी तरक्की के लिए।
अब चुनावों का दौर पूर्ण हो चुका है सो आगे की तैयारी हेतु विकास पर विराम लगाते हुए धार्मिक उन्मादों की ओर सारे राजनीतिक दलों की निगाहें टिकी हुई हैं। दुःख तो ये सब देख कर होता है कि ऐसे कार्यक्रमों को भी प्रायोजित किया जाता है। और हम सब मूक दर्शक बनें हुए केवल समाचारों की परिचर्चाओं का अघोषित हिस्सा बनें हुए हैं।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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